जराचिकित्सक बूढ़े लोगों का इलाज करते हैं। बुढ़ापे में स्वास्थ्य समस्याएं जैविक, सामाजिक और पारिवारिक कारणों से होती हैं। बुढ़ापे की आम समस्याओं में शामिल हैं|
नकली दातों से बुढापा झेलना कुछ आसान होता है |
इनमें से कुछ बीमारियॉं वापस ठीक नहीं हो सकतीं क्योंकि वो बुढ़ापे का हिस्सा हैं। परन्तु कुछ के लिए असरकारी उपाय उपलब्ध हैं। जैसे कि दांत गिर जाने पर नकली दांत लगवाना, कूल्हे की हड्डी टूटने पर आपरेशन, सुनने के लिए मशीन, देखने के लिए चश्मा और मोतियाबिंद का ऑपरेशन।
नकली दांत लगने से व्यक्ति न केवल ठीक से खा सकता है बल्कि उसमें बूढ़े होने का अहसास भी कम हो जाता है और सुनने में भी आसानी रहती है। इससे दिखने में चेहरा भी ठीक रहता है। इस तरह बुढ़ापे मे काफी मदद मिलती है। एक बार लगा दिए जाने के बाद नकली दांत कम से कम १० से २० सालों तक चलते हैं। सरकारी अस्पतालोंमें नकली दात यानी डेंचर बिठाया जाता है।
कई बार टूटी हुई हड्डियॉं पारंपरिक हड्डी जोड़ने वालों और विशेषज्ञों द्वारा भी ठीक से नहीं जुड़ पातीं। ऐसे में इन में लगातार दर्द होता रहता है। इसलिए कोशिश करनी चाहिए कि हड्डियॉं टूटें ही नहीं। कुछ खास बीमारियों के निदान में देरी से काफी समस्या हो सकती है। जैसे कि उच्च रक्त चाप, मधुमेह, कैंसर, चिरकारी कानों का संक्रमण, तपेदिक आदि।
बुढ़ापे में दर्द संवेदना कम हो जाता है। इसलिए अगर स्वास्थ्य समस्या गंभीर हो तो भी दर्द काफी कम हो सकता है – जैसे कि हड्डी टूटने, अलसर या दिल का दौरा पड़ने पर। इसलिए हल्के से दर्द पर भी ध्यान दिया जाना ज़रूरी है।
बच्चों की तरह बूढ़ों के लिए भी ठंड सहना मुश्किल होता है। इसलिए उचित देखभाल काफी ज़रूरी होती है। उन्हें अपने को ठंड से ज़रूर बचाना चाहिए।
बिस्तर पर बुढों की देखभाल |
बूढ़े लोग कई बार लंबी बीमारी, कूल्हे की हड्डी के टूटने और / या अंधेपन या किसी चरम रोग जैसे कि कैंसर की बाद की स्थिति के कारण बिस्तर पर पड़ जाने को मजबूर हो जाते हैं। इस परिस्थिति में उपचार के साथ और काफी कुछ करने की ज़रूरत होती है। नीचे दी गई चीज़ों पर ध्यान दिया जाना ज़रूरी होता है|
मरने वाले व्यक्ति, दोस्तों और रिश्तेदारों के लिए मृत्यु एक जैविक घटना से कहीं बड़ी चीज़ होती है। दर्शन और धर्म हमेशा ही मौत के साथ जुड़े रहे हैं। आज इनमें आपातकालीन चिकित्सा भी शामिल हो गईं हैं। आपातकालीन दवाएं बहुत से लोगों को असमय मृत्यु से बचा लेती हैं। मृत्यु को लेकर आम सोच में भी बदलाव आया है। एक तो व्यक्ति को मौत से बचाने की कोशिश की जाती है। जिसके पास जो भी उपचार उपलब्ध होता है वो उसका इस्तेमाल करता है। गॉंवों में ऐसा समय काफी मुश्किल का समय होता है क्योंकि न तो ज़रूरी दवाएं उपलब्ध होती हैं और न डॉक्टर।लेकिन आजकल व्यक्ति को कहीं ले जाने के लिए सुविधा हो गयी है। मौत तो अंत में आनी ही है तो क्या हमेशा मरते व्यक्ति का उपचार करते रहना उचित है? यह एक व्यवहारिक और नैतिक सवाल है जिसका जवाब हम नहीं दे पाएंगे।
अगर अंत में मृत्यु पास आ ही गई है तो उसका सामना करना चाहिए। लंबे चरम रोगों जिनसे जल्दी या देरी से मौत होनी ही है और बड़ी उम्र का क्षय रोक पाना संभव नहीं है। इसलिए इन्हें वैसे ही छोड़ देना चाहिए। जब तक व्यक्ति जिंदा है उसकी ज़िंदगी जितनी आरामदेह हो सके बनाने की कोशिश करिए। गंभीर रोग से ग्रस्त बूढे व्यक्ती को अस्पताल में रखना आजकल काफी महँगा हो गया है। कभी इसके लिये लाखो रुपये जुराने पडते है और संचित पूँजी चली जाती है। इसके लिये मरीज के स्थिती के बारे में सही सलाह लेना जरुरी है। अगर इलाज संभव है तो जरुर करे, और सरकारी पुण्यार्थ अस्पताल में भर्ती करे। अगर इससे कुछ फायदा संभव नही तब घर-परिवार में रखना कोई गलत बात नही। इसका जरुर विचार करे।
कई बार बीमार व्यक्ति को लंबे समय तक और नाउम्मीदी की स्थिति में अस्पताल में रखे जाने के बाद वापस घर लाना पड़ता है। यह बेहतर ही होता है कि वो अपने आखरी दिन अपने प्रियजनों के साथ बिताएं। स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के रूप में ऐसे में हमारी भूमिका दर्द कम करने, सहारा देने और देखभाल तक ही सीमित होती है। पर ज़्यादा ज़रूरी है कि यह सब हमदर्दी और समझदारी से किया जाए। इससे तकलीफ कम होती है और हमारी अपनी ज़िंदगी समृद्ध होती है। आम लोगों को बहुत ही साधारण लगने वाली इन्हीं चीज़ों से ही गौतम बुद्ध मानवता के बारे में सोचने के लिए प्रेरित हुए थे।