अस्थि-पेशी
संधिवातीय गठिया (आमवात रूमेटॅाइड आर्थ्राराइटस)
rheumatic-arthritis
शायद खून का रिसाव या जोडोंका शोथ

यह एक स्वप्रतिरक्षित बिमारी (आटोइम्यून) है। जिसका परिणाम लचीला जोड़ो में दीर्ध प्रजव्लन है। अगर सही इलाज नही किया धीरे धीरे रोग पुराना होने के कारण जोड़ो का कार्य और लचीलापन नुकसान होता है और प्रभावित जोड़ निर्योग्यकारी और पीड़ादायक होता है। । इस बीमारी से जोड़ों में स्थाई विकृति हो जाती है और हमेशा के लिए इनका काम करना बन्द हो जाता है।

लक्षण और निदान

निम्नलिखित लक्षण हमेशा होते हैं और इनसे बीमारी का निदान हो जाता है:

  • छोटे और बड़े कई सारे जोड़ों में एक साथ तकलीफ की शिकायत होना। जोड़ों में सूजन, दर्द, लाली और हिलाने-डुलाने में समस्या के कारण पर एकदम ध्यान जाता है।
  • समय और मौसम के अनुसार इसकी गम्भीरता में फर्क पड़ना। यह एक चिरकारी समस्या होती है और कई सालों, दशकों और अक्सर उम्र भर तक भी चल सकती है। बीमारी के कारण के बारे में अभी तक कुछ स्पष्ट रूप से पता नहीं है। आधुनिक चिकित्सा प्रणाली में इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है। सिर्फ कुछ शोथविरोधक दवाएँ दी जाती हैं जिनका सिर्फ कुछ देर असर रहता है।
  • यह बीमारी पहले पहले तब दिखाई देती है जब व्यक्ति उम्र के दूसरे या तीसरे दशक में होता है।
  • इस बीमारी का स्वरूप मौसम के अनुसार कम या ज्यादा होता है।
उपचार

स्टिरॉएड के अलावा शोथ विरोधी दवाएँ जैसे ऐस्परीन, आईबूप्रोफेन, मेफानिमिक एसिड दर्द से अस्थाई रूप से आराम दिला सकती हैं। स्टिरॉएड का भी वही असर होता है पर इनका इस्तेमाल लम्बे समय तक नहीं करना चाहिए। स्टिरॉएड या अन्य दवाओं का चुनाव और इस्तेमाल रोगी को ठीक से जाँच के बाद ही करना चाहिए। इसलिए दवा चिकित्सक कें सलाह और देखरेख में लेनी चाहिये।

स्वास्थ्य कार्यकर्ता के रूप में हम रोगी को डॉक्टर के पास पहुँचाने से पहले कुछ समय के लिए आराम पहुँचाने के लिए ऐस्परीन या आईब्रूप्रोफेन दे सकते हैं।

होम्योपैथी

ऐसा दावा किया जाता है कि दर्द कम करने और जल्दी चोट ठीक करने के लिए आरनिका और सिमफाईटम बहुत उपयोगी दवाएँ हैं।

होम्योपैथी और एक्यूपंक्चर

कुछ मामलों में ये तरीके अच्छी तरह से काम कर जाते हैं। परन्तु हर रोगी की जाँच अलग-अलग होनी होती है क्योंकि होम्योपैथिक दवाएँ रोगी के गठन के हिसाब से ही बनती हैं। एक्यूपंक्चर तकनीक का इस्तेमाल किया जा सकता है और अगर यह सुविधा उपलब्ध हो तो स्वास्थ्य कार्यकर्ता को यह तकनीक ज़रूरी सीखनी चाहिए।

संधिवातीय बुखार (आमवात बुखार, रूमेटॅाइड फीवर)

इस बीमारी के बारे में हृद्वाहिका तंत्र में विस्तार से दिया गया है। जोडो की सहायक संरचना मे सुजन को (पैराआरथ्राईटिस कहते है।

जराजन्य गठिया
senile-arthritis
बुढापे में जोडों का दर्द

जैसे-जैसे व्यक्ति बूढ़ा होता जाता है जोड़ों की सतह की टूट-फूट भी बढ़ती जाती है। यह घुटनों, कूल्हों, टखनों और रीढ़ की हड्डी के जोड़ों के साथ और भी ज्यादा होता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि इन जोड़ों को ही शरीर का भार सम्हालना होता है। इसमें हडि्डयों की सतह और जोड़ों के सम्पुटों पर असर होता है। सतह खुरदुरी हो जाती है और हिलाने-डुलाने के समय एक-दूसरे के साथ घिसती है। इससे जोड़ों में हल्की-सी सूजन भी हो सकती है। जराजन्य गठिया बुढ़ापे का हिस्सा है। इसका कोई इलाज नहीं है। हम केवल तकलीफ कम कर सकते हैं। इलाज के प्रमुख नियम हैं :

  • अगर व्यक्ति का वज़न बहुत अधिक है तो उसे वज़न कम करना चाहिए। बीमार को अपना वज़न कम रखने की सलाह दें। वज़न कम करने का सबसे अच्छा मंत्र है, कम खाएँ।
  • उसे ऐसे व्यायाम करने चाहिए जिनमें पैरों पर भार अधिक न हो|
  • कुर्सी में बैठकर पैरों को घुटने के पास से आगे-पीछे हिलाने का व्यायाम आसानी से सीखा जा सकता है। इस व्यायाम के दो फायदे होते हैं _ एक तो इससे जोड़ों का हिलना-डुलना जारी रह पाता है और दूसरा इससे जोड़ों की पेशियाँ मज़बूत होती हैं। नियमित व्यायाम और खासकर योग इसके लिए फायदेमन्द होता है। शारीरिक काम करें। धीरे-धीरे बढ़ने वाली गठिया से बचाव या कम से कम इसे आगे खिसका पाना सम्भव है।
  • डाक्टर की सलाह से दर्द निवारक दवाएँ लेना चाहिये।
  • आजकल आपरेशन द्वारा जोड़ों का प्रत्यारोपण भी होने लगा है।

 

डॉ. शाम अष्टेकर २१, चेरी हिल सोसायटी, पाईपलाईन रोड, आनंदवल्ली, गंगापूर रोड, नाशिक ४२२ ०१३. महाराष्ट्र, भारत

message-icon shyamashtekar@yahoo.com     ashtekar.shyam@gmail.com     bharatswasthya@gmail.com

© 2009 Bharat Swasthya | All Rights Reserved.