जिस तरह बैक्टीरिया त्वचा, फेफड़ों या किन्हीं भी अन्य अंग के ऊतकों पर हमला करते हैं उसी तरह ये हडि्डयों पर भी हमला कर सकते हैं। हडि्डयों में सुक्ष्म जीवी बैक्टीरिया आमतौर पर खून के ज़रिये पहॅुचता है। कुछ मवाद पैदा करने वाले सुक्ष्म जीवी बैक्टीरिया से हडि्डयों में गम्भीर संक्रमण रोग हो सकता है। शरीर में कही भी स्थानीय रोग ग्रस्त संक्रमण स्थान से यह बैक्टीरिया रक्त प्रवाह व्दारा हडडी या जोडो तक पहॅुच जाता है।यह निम्नलिखिततरीके से संभव है-
अस्थिशोथ एक बहुत गम्भीर बीमारी है। यह असल में हडि्डयों का संक्रमण रोग है। इसके सख्त आवरण (पर्यस्थकला,पैरिआसटीयम्) के नीचे मवाद इकट्ठा हो जाता है। संक्रमण वाली जगह पर सुजन हो जाती है जिसे दबाने पर दर्द होता है। समय के साथ-साथ इस जगह की हड्डी कमज़ोर पड़ जाती है। हड्डी कमजोर होने पर छोटे-छोटे टुकड़ों में टुट जाती है और मवाद के साथ कणों के रूप में बाहर आ जाती है। अगर ज़ख्म खुला हो तो आप बाहर आ रहे रिसाव में हडडी के कणों को देख सकते हैं या महसूस कर सकते हैं। हडडी में जमा कैल्शियम कम होता जाता है। ज़ख्म से कई दिनों तक मवाद रिसता रहता है। वैसे ही त्वचा के मुकाबले हडि्डयों और जोडों के संक्रमण को ठीक होने में ज्यादा समय लगता है। मवाद पैदा करने वाले बैक्टीरिया से हुआ तीव्र अस्थिशोथ कुछ स्थितियों में चिरकारी हो जाता है। ये स्थितियाँ हैं ज़ख्म का साफ न रहना या फिर मधुमेह (डायबटीज़) की बीमारी। अस्थिशोथ का कारण आम तौर पर कोई चोट (जिसका इलाज न किया गया हो) होती है। अस्थिशोथ बिमारी का उपचार मुशिकल है। बिमार रोगी का देरी से निदान और उपचार होने पर या ठीक उपचार न होने पर यह बीमारी बहुत लम्बी खिंचती जाती है। लंबी बिमारी के कारण गम्भीर जटिलताएँ पैदा हो जाती हैं।
शोथ और दर्द इस बीमारी के आम लक्षण हैं। जब बीमारी गम्भीर होती है तो दर्द एकदम असहनीय हो जाता है। ऊपरी त्वचा शोथग्रस्त दिखती है। तीव्र अस्थिशोथ में शोथ के सभी लक्षण दर्द, लालपन, सूजन और छुने पर उपरी त्वचा गर्म जैसे सभी लक्षण दिखाई देते हैं । त्वचा पर ज़ख्मवाली जगह से मवाद रिसता रहता है। मवाद का रंग पीला और गाढ़ा या द्रवीय होता है और इसमें हडि्डयों के कण कंकड़ों जैसे होते हैं। ज़ख्म अक्सर चिरकारी हो जाता है।रोगी अन्य लक्षण जैसे बुखार, सूजन, तीव्र अस्थिशोथ में ग्रस्त होते हैं। परन्तु चिरकारी अस्थिशोथ में इनके होने की सम्भावना कम होती है। जब भी त्वचा पर कोई चिरकारी अल्सर देखें तो अस्थिशोथ की सम्भावना का ध्यान रखाना चाहिये।
याद रखें कि बच्चों में विटामिन सी की कमी से भी हडि्डयों में सब जगह दबाने से दर्द होता है, पर अस्थिशोथ में हडडी के रोग ग्रसित स्थान पर दर्द होता है। एक्स-रे ही अस्थिशोथ का सबसे भरोसेमन्द निदान होता है। इसमें हड्डी का आवरण थोड़ा-सा उठा हुआ-सा दिखता है और उसके नीचे हडडी के धनत्व में थोड़ी कमी दिखती है। हडडी के आवरण में छोटा-सा छेद भी दिखाई पड सकता है।
तीव्र अस्थिशोथ जैसी गम्भीर बीमारी के लिए मरीज को तुरन्त अस्पताल में भर्ती करने की ज़रूरत होती है। इसके लिए मवाद की प्रति जीवाणु के लिये पहचान कर असरदार दवाओं (एंटीबायोटिक) से ज़ोरदार इलाज करना होता है। ध्यान रखने वाली बात मवाद की जॉच भेजने के लिये रोगाणु रहित भॉप में पकी शीशी का उपयोग करना चाहिये।
रोग ग्रस्त हिस्से को आराम और ज़ख्म की उपयुक्त देखभाल की ज़रूरत होती है। कभी-कभी हड्डी के मरे हुए हिस्से को निकाल देने की भी ज़रूरत होती है। सबसे महत्वपूर्ण है कि बीमारी को सही समय पर पकड़ा जाए और रोगी के लिए अस्पताल के उपयुक्त इलाज व्यवस्था की जाए। अस्थिशोथ में उपचार का असर बहुत धीमा होता है और इसमें महीनों भी लग सकते हैं। अगर बीमारी क्षय रोग (तपेदिक) के कारण है तो क्षयरोग के इलाज को निरोग करने में लम्बी अवधी तक दवाईयो सही मात्रा में नियमित रूप से खाने पर ठीक होने में कई महीने लग सकते हैं।
हमारे देश में ट्यूबरक्युलोसिस को हिन्दी में क्षय रोग या तपेदिक या यक्ष्मा कहते है। फेफडे प्राय: इसके शिकार होते है परन्तु कभी कभी रीढ की हडडी भी ग्रसीत हो जाती है । जब रीढ की हडडी में क्षय रोग हो जाता है तो उसे पॉट रोग या “ट्यूबरक्युलोसिस स्पानडीलाईटिस” कहते है। इस रोग को पैदा करने वाले जीवाणु बैक्टीरिया का नाम ट्यूवकैल बेसीलस है।
बीसीजी के टीके का आविष्कार होने से पहले यह बचपन में होने वाले फेफडे के क्षय रोगोयो के इलाज के बाद परिणामो में यह आम जटिलता होती थी। फेफडे में प्राथमिक शोध के दौरान ट्यूवकैल बेसीलस के तेजी से बढने के कारण बैक्टीरिया को रोगी के रक्त प्रवाह में छोड़ देते हैं जोकि दूर दराज के एक से अधिक अंगो में जैसे फेफडे, गुर्दे, मस्तिष्क, अस्थि(यो) और अन्य अंगो में पहॅुच कर सड़न पैदा करते है|
सन् 1920 के बाद से बीसीजी के टीके का आविष्कार और क्षय रोग के उपचार व उनकी दवाओं में काफी विकास हुआ है|बहुत सारे लोगो का बीसीजी टीकाकरण पैदा होते ही हो जाता है|सौभाग्य से यह बीमारी अब काफी कम होती है। विकासशील देशो में अब रीढ की हडडी के क्षय रोगी 5 प्रतिशत् ही है। फारलेक्स शब्द कोश के अनुसार एक तिहायी दुनिया के लोगो के शरीर के विभिन्न तंत्रो में इसका बैक्टीरिया मौजुद है पर सिर्फ 16 मिलियन लोगो में क्षय रोग होता है। ऐसा इसलिये है कि शरीर का प्रतिरोधक तंत्र इस बैक्टीरिया पर नियंत्रण रखता है|
कई सारे लक्ष्ण रीढ़ की हड्डी में क्षय रोग होने का संकेत देते है|इसमें कमर दर्द, बुखार, वजन में कमी, भूख न लगना, असंतुलन, लकवा (पैरालिसिस) है। यह क्षय बीमारी का संकेत है| रीढ की हड्डी में विक़ृति ; पॉट रोग या ट्यूबरक्युलोसिस स्पानडीलाईटिस या कशेरुका के खराब हो जाने के कारण अकसर रीढ़ की हड्डी में विक़ृति आ जाती है। रीढ़ की हड्डी सामने की ओर झुक जाती है या फिर एक तरफ। यह रीढ़ की हड्डी में क्षय रोग बीमारी की पहला लक्षण है। इसका अन्त या तो रीढ की हडडीयों का ढॉचा ढहने या हडडियों के फैक्चर हो सकता है।
रोग ग्रस्त कशेरुका पर आपकी उँगली से हल्के से दबाने से दर्द होता है जिससे इसके ग्रसित जगह का पता लग सकता हैं। अगर कोई प्रथम लक्षण् ठीक नही हो रहा तो उसे तुरन्त इलाज के लिए डॉक्टर के पास भेजें। कोशिका निर्माण और मवाद (ए्बसेस) मेरूदण्ड को तंग कर देता है, जिसके कारण नाडी(यों) को नुकसान पहॅुचता है।
रोगी की उम्र, दर्द की स्थ्तिी और चल रहें अन्य उपचारो से फायदा पर इलाज की अवधि निर्भर करती है| खासतौर से क्षयरोग के लिये इलाज के अलावा रोगी को पूर्ण आराम, बहुत सीमित हरकत, विटामिन की गोलियॉ की जरूरत होती है| रीढ की हडडी का अभ्यास का उपयोग अकसर रोगी के स्वस्थ्य होते समय किया जाता है| कभी कभी कमर में पट्टे का उपयो्ग जरूरी होता है| अगर रोगी की स्थिती गंभीर है तो आखिरी रास्ता आपे्रशन होता है पर काफी सारे रोगीयो के लिये जरूरत नही पडती है|