भूगर्भीय हालत के अनुसार बोरवैल या तो सतह (ज़मीन के अन्दर ऊपरी परत) का पानी इस्तेमाल करते हैं या फिर ज़मीन के काफी अन्दर का। दोनों के गुण अलग-अलग हैं।
उत्तरी भारत में चट्टाने ज़मीन के काफी नीचे होती हैं। इसलिए यहॉं बोवैल में वो पानी होता है जो कि बारिश और नदियों से रिसकर मिट्टी के अन्दर समा जाता है। इस पानी के कीटाणुओं और मिट्टी के तत्वों द्वारा दूषित हो जाने की सम्भावना काफी ज़्यादा होती है।
दक्षिण भारत के पठार में चट्टानें सतह के पास हैं और मिट्टी की गहराई (तह) तुलनात्मक रूप से पतली है। यहॉं पर कूपनलिका का पानी मुख्यत: चट्टानों की तह के नीचे से आता है। यह पानी चट्टानों की दरारों में से रिस कर नीचे गया हुआ पानी होता है। यह पानी कीटाणु रहित होता है। बोरवैल में हैंडपम्प के आसपास इकट्ठे पानी के रिसकर मिट्टी के अन्दर चले जाने से स्रोत के पानी के दूषित हो जाने की सम्भावना हमेशा रहती है। इससे पानी से पैदा होने वाली बीमारियॉं हो जाती हैं। इसलिए यह सुनिश्चित किया जाना ज़रूरी है कि बोरवैल में नाली और चबूतरे समेत पानी के निकास की उपयुक्त व्यवस्था है।
बोरवेल में लोह क्षार ज्यादा पाया जाता है इसके लिए शुद्धता का इंतजाम करना पडता है |
जिन बोरवैलों की जॉंच हो चुकी हो और जो कीटाणुरहित पाए गए हों, उनमें ब्लीचिंग पाउडर डालने की ज़रूरत नहीं होती। पर अगर किसी बोरवैल में ब्लीचिंग पाउडर डालने की ज़रूरत हो रही है तो उसका शुद्ध किया हुआ पानी केवल कुछ ही समय के लिए सुरक्षित रहता है। ऐसा इसलिए क्योंकि जल्दी ही शुद्ध किए हुए पानी का स्थान पर बाहर से और पानी आ जाता है। बोरवैलों ने पानी से होने वाली बीमारियों की तादाद काफी कम कर दी है। परन्तु ज़मीन के अन्दर के पानी में बहुत से पदार्थ (लवण और खनिज) घुले रहते हैं। अगर इनकी मात्रा एक हद से ज़्यादा हो तो ऐसा पानी पीने के लिए सुरक्षित नहीं रहता है। घुले हुए खनिज की कुल मात्रा से पानी की कठोरता का पता चलता है। पानी का परीक्षण करने वाली प्रयोगशालाओं से हमें यह पता चल सकता है कि पानी में कीटाणु या कोई और पदार्थ तो नहीं हैं। आजकल किट भी मिलती हैं जिनसे पानी की कठोरता का पता चल जाता है। राजस्थान में फ्लोरिन और पश्चिम बंगाल में अर्सेनिक प्रदूषण से भूजल विषाक्त हो गया है।
बिहार जैसे कुछ इलाकों में पानी का स्तर काफी उपलब्ध रहता है जिसमें प्रदूषण की संभावना होती है |
बोरवैल के हैंडपम्पों का बार-बार खराब होना पहले एक बड़ी भारी समस्या होती थी। भारत में मार्क २ पम्पों के इस्तेमाल से इस समस्या से छुटकारा पा लिया गया है। थोड़े से प्रशिक्षण और छोटे-मोटे औजारों से गॉंव की महिलाएँ भी आसानी से इन पम्पों को ठीक कर सकती हैं।
खुले कुएँ के ज़मीन की सतह की मिट्टी और धूल से बहुत आसानी से दूषित हो जाते हैं। डगवैल को साफ रखने के लिए नीचे दिए गए तरीके इस्तेमाल किए जा सकते हैं –
खुला कुआ ठीक से ढककर, पॅरापीट बनाकर सुरक्षित रखना जरुरी है |
सार्वजनिक पेयजल आपूर्ति को शुद्ध किया जाना सामुदायिक स्वास्थ्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हे। शहरों में पानी को शुद्ध करने के प्लांट में मशीनी या रेत की तेज़ छन्नियॉं इस्तेमाल होती हैं। ये बिजली के पम्प से चलती हैं। परन्तु गॉंवों में रेत की धीमी छन्नियों (जैविक छन्नियों) पर्याप्त होती है। इन जैविक छन्नियों से सभी तरह के कीटाणु निकल जाते हैं। परन्तु गॉंवों के पेयजल प्लांट अक्सर सिर्फ पानी इकट्ठा करते हैं। इनमें पानी की गुणवत्ता पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है। हर पेयजल प्लांट में यह सब होता है –
पीने के पानी में थोड़ा सा फ्लोरीन होना दॉंतों और हडि्डयों के लिए ज़रूरी हाता है। फ्लोरीन की कमी से दॉंतों में छेद हो जाते हैं। पर दूसरी और बहुत अधिक फ्लोरीन होने से दॉंत और हडि्डयॉं कमज़ोर हो जाती हैं। इससे फ्लूरोसिस नाम की बीमारी हो जाती है। भारत में फ्लोरीन की कमी और अधिकता दोनों समस्याएँ मौजूद हैं। आमतौर पर केवल शहरी पानी की आपूर्ति के प्लांटों में फ्लोरीन की मात्रा की जॉंच होती है। इस सुविधा को ग्रामीण इलाकों में पहुँचाने की ज़रूरत है। अगर फ्लोरीन का स्तर ज़रूरी मात्रा से कम है तो पानी शुद्ध करने वाले प्लांटों में इसे पानी में मिलाया जा सकता है। और अगर फ्लोरीन ज़्यादा हो तो उसे निकाला भी जा सकता है।
मिनरल वॉटर की बोतल का पानी अच्छा जरुर होता है लेकिन मिलावटी का कौन क्या करे? |
यह पानी शुद्ध किया हुआ पानी होता है जिसमें ज़रूरी खनिज और लवण मिलाए हुए होते हैं। यात्रा के दौरान इसे काफी इस्तेमाल किया जाता है।
बढ़ती हुई मॉंग के कारण बाज़ार में कई एक धोखेवाली कम्पनियॉं भी आ गई हैं। अगर यह पानी शुद्ध नहीं है तो इससे भी दस्त भी लग सकते हैं।