इसलिए सामुदायिक स्वास्थ्य सिर्फ बीमारी के इलाज तक सीमित नहीं रहता। परन्तु इसमें असल में समुदाय के स्वास्थ्य के प्रबन्धन, बीमारी से बचाव और अच्छे स्वास्थ्य को बढ़ावा देने जैसे पहलू भी शामिल रहते हैं। सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यक्रम के कुछ उदाहरण हैं, आँगनवाड़ियॉं, स्कूलों में दोपहर का पोषक भोजन दिया जाना, टीकाकरण अभियान, संक्रामक रोगों की रोकथाम, पीने के शुद्ध पानी की व्यवस्था और भोजन में सफाई के लिए बढ़ावा दिया जाना।
सार्वजनिक स्वास्थ्य में पूरे विश्व में एक क्रान्ति होते हुए देखी गई है। व्यक्तिगत और सार्वजनिक स्वच्छता पर ध्यान, पोषण में सुधार, टीकाकरण, रोगाणुनाशन की कोशिशों और जीवन के बेहतर हालात इस क्रान्ति के प्रमुख कारण हैं। सार्वजनिक स्वास्थ्य के इन मुद्दों से समुदायों और देशों के स्वास्थ्य में सुधार आया है।
जलवायु सम्बन्धित कारक, सॉंस्कृतिक कारक स्वास्थ्य साक्षरता, आर्थिक हैसियत, रहनसहन के बेहतर तरीके और स्वास्थ्य सेवाएँ, सामाजिक सुविधा आदि मुद्दों का महत्त्व कम नहीं। इन सबके मुकाबले बीमारी और मौतों को कम करने में डॉक्टरों-दवाईयोंने ने कम भूमिका निभाई है। सार्वजनिक स्वास्थ्य के प्रयास भारत जैसे कई देशों में कमज़ोर रहे हैं वहॉं डॉक्टरों और दवाइयों के बावजूद स्वास्थ्य के हालात भी खराब रहे हैं।
किसी देश की स्वास्थ्य की स्थिति जिन कारकों से तय होती है वो हैं : एक खुशहाल और टिकाऊ अर्थव्यवस्था, सार्वजनिक सुविधाएँ, शिक्षा, सामाजिक न्याय और सामाजिक सुरक्षा, बच्चों और महिलाओं की सामाजिक स्थिति, पोषण का स्तर, सामाजिक सेवा (जिनमें स्वास्थ्य सेवाएँ भी शामिल हैं) और आदमी की स्वतंत्रता।
अगर जीवन की गुणवत्ता बेहतर हो तो इससे बीमारी और मौत भी कम होगी। जीवन की गुणवत्ता, घर, स्वच्छता, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं और पोषण के स्तर पर निर्भर करती हैं। चिकित्सीय सेवाओं की बजाए इन कारकों से स्वास्थ्य के स्तर में सुधार होता है। उदाहरण के लिए एक समय यूरोप में कुष्ठरोग, तपेदिक, और अन्य कई बीमारियॉं बहुत आम थीं। परन्तु जब रहन सहन हालातों में सुधार हुआ तो इनमें काफी कमी आई। यह जीवाणु नाशक दवाओं के बनने से पहले हुआ।
गॉंवों और झोपड़पट्टी में रहने वाले लोग बहुत सारी छूतहा बीमारियों के शिकार होते रहते हैं। वहीं दूसरी ओर खुशहाल लोगों को ज़्यादातर मोटेपन और अपकर्षक बीमारियॉं होती हैं। इन अमीर लोगों को जूओं, पामा (स्कैबीज़) या फीताकृमि जेसी बीमारियॉं बहुत कम होती हैं। बहुत सी बीमारियों के नियंत्रण के लिए रहने सहने के बेहतर हालात काफी ज़रूरी होते हैं।
रहन सहन के स्तर का एक अच्छा सूचक यह है कि खाने पीने पर कितना पैसा खर्च किया जा रहा है। भारत के गरीब वर्ग में खाने के तेल की खपत एक बहुत ही संवेदनशील सूचक है क्योंकि यह सीधे-सीधे परिवार की आमदनी पर निर्भर करता है।जन्म के समय वज़न भी एक महत्वपूर्ण सूचक है क्योंकि बच्चे का जनम के समय का भार तभी ठीक-ठीक हो सकता है अगर मॉं को उसके बचपन से ही जीवन यापन के स्वस्थ हालात मिले हों। औसत ऊँचाई और नवजात शिशु-मृत्युदर भी रहन-सहन के स्तर के सूचक होते हैं। जाहिर है की इन सब कारको में भारत कुछ पीछे ही है।
व्यक्तिगत सफाई और स्वास्थ्य आदतें, स्वास्थ्य को लेकर सोच, खानपान की आदतें, कसरत आदि सभी स्वास्थ्य के स्तर पर प्रभाव डालते हैं।