आयुर्वेद भारत की प्राचीन परंपरा है |
आयुर्वेद मूल रूप से स्वस्थ जीवन का एक तरीका है। साथ-साथ आयुर्वेद दवा के माध्यम से एक उपचार पद्धतियॉं है। मानव शरीर के गठन के सैंकड़ों गुणों के अलावा प्रकृति, उसके मौसम, खाने और सैकड़ों प्राकृतिक पदार्थो के चिकित्सीय गुणों का उपयोग होता है। यह भारत के उत्तरी और दक्षिणी भागों में तुलनात्मक रूप से शांतिपूर्ण समय में विकसित हुआ।
अँग्रेज़ भारत में आधुनिक चिकित्सा प्रणाली लाए। इसने आयुर्वेद पर के चलन को काफी प्रभावित किया। विज्ञान के आधुनिक तौर तरीकों और राज्य के सहयोग से आधुनिक चिकित्सा आयुर्वेद से आगे निकल गई। आज आयुर्वेद केवल कुछ ही समुदायों में, केवल कुछ ही बीमारियों के लिए जीवित है। इसे आधुनिक चिकित्सा के बाद दूसरे नम्बर पर ही महत्व दिया जाता है। ये बहुत दुख की बात है कि हमने चिकित्सा के इस पुराने तरीके को बचाने के लिए कुछ खास नहीं किया।
पिछले कुछ सम में आयुर्वेद और जड़ी बूटियों में दोबार से दिलचस्पी शुरू हो रही है। ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि आधुनिक चिकित्सा प्रणाली की गम्भीर सीमाएँ अब सामने आ रही हैं। क्षरण वाली बीमारियॉं बढ़ रही हैं और विकासशील देशों तक में संक्रामक रोग कम हो रहे हैं। इसने बीमारियों के कारणों और उपचार के बारे में फिर से नए सवालों को जन्म दिया है। समस्या यह है कि कोई ऐसा पौध ही नहीं है जो दवा के काम नहीं आ सकता!
कुछ लोग आयुर्वेदिक ज़्यादा पसन्द करते हैं। दूसरे इसका सहारा तब लेते हैं जब अन्य प्रणालियों से फायदा नहीं होता। भारत के ज़्यादातर गॉंवों में आयुर्वेद आज भी काफी प्रचलित है। एक परम्परा के रूप में पढ़े लिखे वर्ग तक में इसकी काफी मान्यता है। इसकी लोकप्रियता का एक कारण हमारे साथ इसकी प्राकृतिक नजदीकी है। इससे भी ज़्यादा यह है कि कुछ बीमारियो के लिए आयुर्वेद अन्य प्रणालियों से बेहतर काम करता है।
बुद्व के समय से पहले की कई शताब्दियों में आयुर्वेद एक बढ़ता हुआ विज्ञान और चिकित्सा का एक महत्वपूर्ण तरीका हुआ करता था। अहिंसा का सिद्धान्त शायद आयुर्वेद में शल्य चिकित्सा के अन्त का एक कारण बना। बार बार होने वाले हमलों में आयुर्वेद की ढेरों किताबें और संस्थान बर्बाद कर दिए। परन्तु आज भी वैद, वैद्य और दादी नानियॉं चिकित्सा के लिए आयुर्वेद का इस्तेमाल करते हैं। आयुर्वेद की कई एक शाखाएँ हैं जैसे दवाएँ, शल्यचिकित्सा, मर्मचिकित्सा (एक्यूप्रेशर जैसे),सूतिका (प्रसव सम्बन्धी) विद्या, सिद्व और इलाज के कई और तरीके। परन्तु आयुर्वेद की ज़्यादातर जानकारी खो चुकी है। आज की शल्यचिकित्सा में उपयोग होने वाले उपकरणों जैसे कुछ उपकरण ज़रूर मिले हैं परन्तु परम्परागत शल्यचिकित्सा खतम हो चुकी है। आयुर्वेद के शिक्षकों और आयुर्वेद के चिकित्सकों को आधुनिक चिकित्सा प्रणाली की आयुर्वेद में घुसपैठ को लेकर काफी हिचक है। बहुत सी चिकित्सीय जॉंचों ने आयुर्वेद चिकित्सा प्रणाली में प्रवेश कर लिया है। फिर भी नए और पुराने विज्ञान में बहुत अधिक मेल नहीं है। आने वाले दशकों में भी दोनों प्रणालियों में अर्न्तसम्बन्ध में काफी विवाद रहेंगे। कम से कम कुछ क्षेत्रों में आयुर्वेद की जानकारी और दवाइयों का भविष्य काफी सुरक्षित है। दवाइयॉं आयुर्वेद का एक छोटा सा ही हिस्सा है। परन्तु आज आयुर्वेद का जो स्वरूप मौजूद है उसका अधिकॉंश हिस्सा यही है। आयुर्वेद के विद्वानों ने उस समय की वैज्ञानिक तर्क के अनुरूप सैंकड़ों चिकित्सीय पेड़ पौधों का अध्ययन किया।
आयुर्वेद में असंख्य पारम्परिक उपचार शमिल हैं जो कि कुछ सिद्धान्तों पर आधारित हैं। परन्तु जिन औषधीय परम्पराओं से ये शुरू हुए उन्हें समझना काफी आसान है। भारत मे पेड़ पौधों की प्राकृतिक विपुल सम्पदा मौजूद है। इस अध्याय के अन्त में औषधीय उपचारों की एक सूची दी गई है।
द्रव्य को लेकर प्राचीन भारतीय सोच मुख्यत: पॉंच घटकों पर आधारित है। ये पॉंच घटक हैं, पृथ्वी, आप (पानी), तेज (प्रकाश की ऊर्जा), वायु (हवा) और आकाश। पृथ्वी से द्रव्यमान, सुगन्ध और मानव शरीर की आकृति बनती है। पानी से तरलता और स्वाद बनते हैं। तेज से शरीर को रंग, छवि और गर्मी मिलती है। वायु से गतिशीलता मिलती है। आकाश शरीर के सभी खाली स्थानों और नलियों का प्रतिनिधित्व करता है। संवेदी अंग भी इन्हीं अव्यवों से मिल कर बने हैं: तेज से दृष्टि, आप से स्वाद, पृथ्वी से खुशबू और आकाश से सुनाई देना और गतिशीलता और स्पर्श वायु से। यह पॉंच घटकों की अवधारणा आगे तीन बुनियादी दोष के सिद्धान्तों को बनाती है।