श्वसन तंत्र की बीमारिया बहुत आम हैं। पाचन तंत्र की तरह श्वसन तंत्र को भी बाहरी चीजों का कहीं ज़्यादा सामना करना पड़ता है। इसीलिए श्वसन तंत्र की एलर्जी और संक्रमण इतनी आम है। हवा से होने वाली संक्रमण से बचना उतना आसान नहीं है जितना कि खाने व पानी से होने वाली संक्रमण से बचाव करना। बेहतर आहार, घर और स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता (जैसे धुम्रपान से परहेज) यही सामान्यतया महत्वपूर्ण है। लगातार बढ़ रहा वायु प्रदुषण भी सॉंस की बीमारियों के लिए काफी नुकसानदेह है।
श्वसन तंत्र की सभी बीमारियों में खॉंसी होना सबसे आम है। खॉंसी अपने आप में कोई बीमारी नहीं है। यह असल में किसी न किसी बीमारी का लक्षण है। परन्तु अक्सर इलाज बीमारी के बजाय खॉंसी पर केन्द्रित हो जाता है, जो गलत है। खॉंसी के लिए दिए जाने वाले सिरप आम तौर पर असरकारी नहीं होते। परेशानी की जगह और कारण का निदान ज़रूरी है। श्ससन तंत्र की रचना और कार्य की जानकारी से हमें मदद मिल सकती है।
बच्चों व वयस्कों में गला खराब होना एक आम समस्या है। वायरस या बैक्टीरिया की संक्रमण गला खराब होने के सबसे आम कारण हैं। परन्तु गला खराब होने के अन्य कारण भी होते हैं। एलर्जी से, गैस, घी, तेल या धूल जैसे शोथकारी/प्रकोपक पदार्थो से भी गला खराब हो जाता है। और कभी गले का बहुत ज़्यादा इस्तेमाल से भी ऐसा होता है। कुछ जीवाणु ऊपरी श्वसन तंत्र में ठहरे रहते हैं। शरीर की प्रतिरोधी क्षमता कम होती है तब श्वसन तंत्र में ये घुस जाते हैं।
शुरू-शुरू में गले में खराश होती है। इसके बाद कॉंटे जैसा चुभन और निगलने में परेशानी होती है। इसके बाद गले में दर्द होने लगता है। बोलने में भी परेशानी होने लगती है। गले की जॉंच करें। खासकर पीछे की ओर की और टॉन्सिल की। और देखें कि यहॉं लाली और सूजन तो नहीं है। टॉन्सिल इस क्षेत्र के पहरेदार होते हैं इसलिए टॉन्सिल पर भी असर हो सकता है। अक्सर गले की गिल्टियॉं में भी दर्द और पीडा हो सकती है।
संक्रमण में कुछ सामान्य असर भी होते हैं। हल्का या मध्यम बुखार, सिर और बदन में दर्द और बीमारी के कारण उदासी और आलस महसूस होते है।
संक्रमण वायरस से हुई है या बैक्टीरिया से यह तय कर पाना मुश्किल होता है। बच्चों में अक्सर यह वायरस से होती है। अगर साथ में जुकाम भी हो तो संभवत: यह वायरस का संक्रमण ही है। अगर गले में पीप की पपड़ियॉं हों तो जाहीर है कि यह संक्रमण बैक्टीरिया का है।
टीकाकरण की बदौलत आज डिप्थीरिया बहुत ही कम होता है। फिर भी ध्यान रखना चाहिए कि आप किसी बच्चे में अगर गला खराब होने का इलाज कर रहे हैं तो वो डिप्थीरिया न हो। ध्यान से देखें की गले और टान्सिलो के ऊपर कोई भूरा परत तो नहीं है। अगर ऐसी परत है तो इसे हटाने की कोशिश से नीचे से खून निकलने लगेगा। डिप्थीरिया एक खतरनाक और जानलेवा बीमारी है। ऐसा डिप्थीरिया के बैक्टीरिया द्वारा बनाए गए जीवविष से होता है। यह जीवविष महत्वपूर्ण अंगों जैसे दिमाग और दिल पर असर डालता है। कभी-कभी भूरा परत हवा के मार्गो को ढंक लेती है। इससे दम घुटने से मौत भी हो सकती है। अगर आप को शक हो कि किसी बच्चे को डिप्थीरिया हुआ है तो उसी दिन डॉक्टर की मदद लें। ऐसा करने से इलाज भी हो जाएगा और रोगी को अलग भी रखा जा सकेगा। ऐसा करना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि डिप्थीरिया एक संक्रामक रोग है।
ज़्यादा तर मामलों में गला खराब होने पर दिन में 3 या 5 बार गर्म नमक पानी से गरारे करने से फायदा हो जाता है। इससे गले को आराम भी पहुँचता है। हालॉंकि दर्द और सूजन ऐस्परीन से कम हो जाते हैं परन्तु बच्चों के लिए पैरासिटेमॉल का इस्तेमाल करना चाहिए।
बैक्टीरिया की संक्रमण के लिए जीवाणु नाशक दवा जैसे मुँह से ऐमॉक्सीसिलीन देने की ज़रूरत होती है। अगर वायरस संक्रमण हुआ हो तो सिर्फ ऐस्परीन या पैरासिटेमॉल पर्याप्त है। गले को आराम पहुँचाने के लिए कई सारी गोलियॉं बाज़ार में मिलती है। इनका असर सीमित या नही के बराबर होता है।
किसी भी तरह से गला खराब होने पर हल्दी से फायदा होता है। पहले गुनगुने नमकीन पानी से गरारे करने के बाद एक कप मीठा गर्म दूध एक चुटकी हल्दी के साथ लेने से काफी फायदा होता है। अँगूठे की मदद से टॉन्सिल पर पिसी हुई हल्दी लगाने से भी फायदा होता है। कभी-कभी इससे उल्टी आ जाती है, पर इससे घबराने की ज़रूरत नहीं है। पर्याय स्वरूप हर एक दो घण्टों के बाद एक चम्मच पिसा जीरा और चीनी चूसने से गले को आराम पहुँचता है।
टॉन्सिलाइटिस बच्चों को स्कूल जाने की उम्र से पहले और शुरू-शुरू सालों में होता है। यह सामान्यतया बड़ों में नहीं होता।
गले में दो तर्फा टॉन्सिल होते है |
यह शोथ बैक्टीरिया या वायरस की संक्रमण से होता है। यह आम जुकाम, गला खराब होने से भी शुरू होता है या कभी-कभी सीधे ही शुरू होता है। आम तौर पर यह फर्क करना मुश्किल होता है कि संक्रमण बैक्टीरिया से हुई है या वायरस से। बैक्टीरिया से हुए शोथ में टॉन्सिल के ऊपर पीप की पपड़ियॉं जम जाती हैं।
टॉन्सिलिटाइटिस ज़्यादा बढ़ जाने पर स्थानीय लक्षण दिखाई देते हैं। जैसे कि गले में दर्द और निगलने में परेशानी। ध्यान से देखने से एक या दोनों टॉन्सिल में सूजन और लाली दिखई देती है। सूजे हुए टॉन्सिल पर छोटे छेद जैसे देखे जा सकते हैं। कभी-कभी बैक्टीरिया की संक्रमण में आप पीप की पपड़ियॉं भी देख सकते हैं। गले में लसिका ग्रंथियॉं आम तौर पर दर्द करती हैं और सूजे रहते हैं। अक्सर बच्चा खुद बता सकता है कि उसे कहॉं दर्द हो रहा है।
टॉन्सिलिटाइटिस में आमतौर पर मुँह से कोट्रीमोक्झॅझोल या ऐमॉक्सीसिलीन से फायदा होता है। इसके साथ शोथविरोधी दवाई जैसे आईबूप्रोफेन भी जरुरी है। आईबूप्रोफेन से दर्द और बुखार कम करने में मदद मिलती है। गुनगुने नमकीन पानी से गरारे करने से भी बहुत फायदा होता है।
आर्युवेद के अनुसार हल्दी टॉन्सिलीइटिस में भी उतनी ही असरकारी होती है जितनी कि गला खराब होने में। इसका इस्तेमाल ठीक उसी तरह से करना चाहिए। जल्दी इलाज से बीमारी बढ़ने से रूक जाती है। और फिर और दवाओं की ज़रूरत नहीं पड़ती।
टॉन्सिलीइटिस में कई बार होमोपैथिक दवाएँ काफी फायदा करती हैं। इनके बारे में अलग से एक अध्याय में बताया गया है। कई बार दीर्घकालीन टॉन्सिलीइटिस के मामलों में, जिनमें ऑपरेशन की सलाह दी गई हो, होमयोपैथिक इलाज से फायदा होता है।
टॉन्सिल असल में संक्रमण से गले की रक्षा के लिए द्वारपाल जैसे होते हैं। इसलिए यह स्वाभाविक है कि गले को बचाने के लिए सबसे पहले इन्हीं पर असर हो जाता है। इसलिए इन का बने रहना गले के लिए अच्छा है। टॉन्सिलैक्टोमी नामक ऑपरेशन में इन्हें निकाल दिया जाता है। दुर्भाग्य से ये ऑपरेशन काफी ज़्यादा किया जाता है, कई बार ज़रूरत न होने पर भी ऑपरेशन करके टॉन्सिल को निकाल दिया जाता है| इन्हे निकाल देना केवल तभी ज़रूरी होता है जब टॉन्सिलीइटिस बार-बार होता हो। क्योंकि ऐसा होने का मतलब यह होता है कि टॉन्सिल खुद ही इतने कमज़ोर हैं कि वो शरीर की रक्षा नहीं कर सकते। ऐसे में ये केवल बैक्टीरिया को अपने अन्दर छिपा कर रखने का काम कर रहे होते हैं।