गर्भावस्था के दौरान ठीक से देखभाल माँ और बच्चे दोनों के स्वास्थ्य के लिए महत्त्वपूर्ण है। तकनीकी रूप से गर्भावस्था के दौरान की जाने वाली देखभाल को प्रसव पूर्व देखभाल कहते हैं। इसके तीन उद्देश्य होते हैं।
गर्भावस्था में पेट की जॉंच करना बिलकुल अनिवार्य है |
हालाँकि सब गर्भवती महिलाएँ इस समय-सूची का पालन नहीं करतीं। कम से कम उन महिलाओं को इसका पालन ज़रूर करना चाहिए जिन्हें किसी तरह की कोई तकलीफ हो। नीचे दी गई जानकारी महत्वपूर्ण है –
प्रसव पूर्व देखभाल में भी गर्भवती महिला से निम्नलिखित जानकारी लेना चाहिए।
श्रोणी में भ्रूण का सिर घुस न पाना प्रसव में मुश्किल पैदा करता है |
पोषण से सम्बन्धित बीमारियों का पता करें। जैसे एनीमिया, रतौन्धी या मुँह में छाले । माँ की लम्बाई नापें। अगर उसकी लम्बाई १४५ सेन्टीमीटर से कम है तो उसकी श्रोणी का निचला सिरा बहुत छोटा होता है। ऐसे में बच्चे का सिर इसमें से आसानी से नहीं निकल पाता और इससे बच्चे का जन्म मुश्किल हो जाता है।
गर्भावस्था में नियमित रूप से माता का भार की जाँच करें। पता करें कि भार में यह बढ़ोत्तरी सामान्य है या नहीं। आमतौर पर गर्भावस्था के दौरान महिला का भार ९ से १० किलो बढ़ता है। इसमें से कुछ भार बच्चे के कारण और बच्चादानी और नाल की वृध्दि के कारण होता है। भार में कुछ वृध्दि माँ के शरीर में कुछ नमक और पानी के थम जाने के कारण होती है। अगर भार में बढ़ोत्तरी कम या ज्यादा हो तो तुरन्त डॉक्टर को बताया जाना चाहिए। अगर भार में वृध्दि कम है तो इसका अर्थ है कि माँ को पर्याप्त खाना नहीं मिल रहा है। और बच्चे की वृध्दि भी ठीक नहीं हो रही है। हर बार जब माँ जाँच के लिए आए तो उसका रक्तचाप ज़रूर मापें। गर्भावस्था की विषाक्तता (पी.आई.एच) और कुछ और बीमारियों जैसे गुर्दे की संक्रमण में रक्तचाप बढ़ जाता है। ध्यान दें कि कहीं गर्भवती महिला के पैरों में सूजन तो नहीं है। यह गंभीर खून की कमी या गर्भावस्था की विषाक्तता के कारण हो सकता है। ऐसे में पूछें कि क्या महिला को साँस फूलने व दिल की धड़कन बढ़ने की शिकायत है।
सोनोग्राफी से गर्भ की जॉंच |
आजकल सोनोग्राफी जॉंच बहुत ही आम बोलबाला है। सुविधा हो तो गर्भावस्था में २-३ बार सोनोग्राफी हो जाती है। इससे हमे कई तथ्य मालूम होते है, जैसे प्रसव की अपेक्षित तारीख, गार्भस्य भ्रूण की सेहत, अंगोंके बारे में गर्भ कोश में पर्याप्त पानी का होना आदि। पहली जॉंच अक्सर ८-१२ सप्ताह के बीच की जाती है।
अन्यथा सोनोग्राफी जॉंच चिकित्साविश्व में एक महत्त्वपूर्ण कदम है, जिससे रोगनिदान में क्रांति सी हुयी है। गर्भावस्था में इसके कई उपयोग है। माता और बच्चे के सेहत की काफी कुछ जानकारी समय समय मिलने में इसका बडा योगदान है। पहला अल्ट्रासोनोग्राफी टेस्ट १० वें से १२ वें हफ्ते में किया जाता है। उसके बाद अगर ज़रूरी हो तो इसे फिर से भी किया जा सकता है। अल्ट्रासोनोग्राफी सुरक्षित होता है क्योंकि इसमें गर्भ की फोटो लेने के लिए ध्वनि की तरंगों का इस्तेमाल होता है, एक्स-रे का नहीं।
गर्भावस्था में अल्ट्रासोनोग्राफी या साधारण सोनोग्राफी टेस्ट आजकल ज्यादातर शहरों में अधिकतर किए जाने लगे हैं। अल्ट्रासोनोग्राफी में गर्भावस्था के बारे में काफी कुछ पता चल जाता है।
यह एक बहुत-ही महत्वपूर्ण टेस्ट है। दुर्भाग्य से लोग व डॉक्टर इसका गलत इस्तेमाल यह पता करने के लिए भी करते हैं कि गर्भस्थ शिशु लड़का है या लड़की। यह दुर्भाग्यपूर्ण है की भारतमें सोनोग्राफीका कुछ गैरजिम्मेदार डॉक्टर भ्रूण की लिंग जानने के लिये इस्तेमाल करते है। यह बिलकुल गैरकानुनी है और दंडनीय है। पुरुष-सत्ताक सामाजिक परिस्थितीवश अनेक परिवार इसमें शामील होते है और बहुओंपर यह जुल्म करते है। लिंग- अनुपात इस सामाजिक समस्या के कारण भारत में महिलाओंके खिलाफ चला गया है। अब भारत में प्रसुतीसमय लडका, लडकी का अनुपात १०००:९३३ इतना असंतुलित हो गया है।
पहले तीन महीनों में गर्भावस्था के ठीक-ठाक होने के बारे में पक्का करने के लिए आन्तरिक जाँच ज़रूरी होती है। बाद के तीन महीनों में आन्तरिक जाँच की ज़रूरत यह पता करने के लिए ज़रूरी होती है कि बच्चादानी का मुँह कसी हुई है या शिथिल (ढीली)। सामान्य स्थिति में आप केवल अपनी छोटी उँगली का सिरा ही गर्भाशयग्रीवा में डाल सकते हैं। अगर यह ढीली है तो इस स्थिति में गर्भपात होने का खतरा होता है। ऐसे में माँ को अस्पताल जाने की सलाह दें ताकि उसकी गर्भाशयग्रीवा को कसा जा सके। यौन रोगों के लक्षणों की जाँच करें। कहीं योनि में कोई अल्सर या मांस तो नहीं बढा है? अन्दरूनी जाँच करते समय अच्छे दस्ताने पहनें जो फटे हुए या छेद वाले न हों। एचआईवी एवं हेपटैटिस के संक्रमण से बचाव के लिए यह ज़रूरी है।
पहली बार गर्भवती माँ गर्भ के पाँचवें महीने से गर्भस्थ शिशु का खेलना महसूस कर पाती है। दूसरी बारी की अनुभवी माँ इससे भी पहले से ही यह महसूस कर पाती है। शिशु के दिल की धड़कन एक आले या फीटोस्कोप से छठें महीने से सुनी जा सकती है। कभी इसके लिये डॉपलर मशीन भी कई जगह उपलब्ध होता है। आठवें से नौवें महीने में हम गर्भ के दिल की धड़कन गिन भी सकते हैं। यह सामान्यत: १२० से १६० प्रति मिनट होती है। किस जगह पर शिशु के दिल की धड़कन सुनाई देगी यह इस पर निर्भर करता है कि बच्चेदानी में बच्चे की स्थिति क्या है। आमतौर पर यह नाभि के एक तरफ और काफी नीचे होता है। ऐसा उन शिशुओं में होता है जिनका सिर गर्भाशय में नीचे तरफ हो। उन शिशुओं में दिल की धड़कन नाभि के ऊपर दोनों ओर सुनी जा सकती है जिनका सिर गर्भाशय में छाती की तरफ हो (ब्रीच)।
गर्भाशय के आकार से हमें गर्भावस्था के काल का पता चलता है। अगर गर्भावस्था के किसी काल के हिसाब से गर्भाशय काफी छोटा है तो यह तो शिशु की वृध्दि या फिर गर्भस्थ शिशु के मर जाने के कारण होता है। कभी कभी महिला अपने आखरी माहवारी की तिथी भुलकर गलत बताती है, (इस परिस्थिती में सोनोग्राफी से ही भ्रूण का सही उम्र पता चलता है)। बच्चे की खेलने से और दिल की धड़कन से हमें पता चलता है कि बच्चा जीवित है या नहीं।
आर्यन गोली से रक्ताल्पता से हम बच सकते है |
बहुत-सी दवाएँ गर्भस्थ शिशु के लिए नुकसानदेह होती हैं। दुर्भाग्य से ज्यादातर आम चिकित्साकर्मियों को इसका पता नहीं होता। असल में सही नियम यह है कि उन सभी दवाओं और तरीकों का इस्तेमाल न करें जिनके बारे में पक्का न हो कि वो गर्भावस्था में सुरक्षित हैं।
बहुत-सी दवाएँ गर्भावस्था के लिए सुरक्षित नहीं होतीं। यहाँ तक की ऐस्परीन, टैट्रासाइक्लीन, मैबेनडाज़ोल, मैट्रोनिडाज़ोल और हारमोन वाली मुँह से दी जाने वाली दवाएँ नुकसानदेह होती हैं। गर्भावस्था के निदान के लिए एक हारमोन वाली गोली इस्तेमाल होती रही है। माहवारी शुरू करने के लिए गोली और गर्भपात की गोली। भ्रूण के लिए बहुत अधिक नुकसानदेह है। एक्स-रे भी गर्भस्थ शिशु के लिए खतरनाक होता है। हालमें जिस महिला को गर्भ अपेक्षित है वह सभी दवाओंसे तबतक बचे रहे। क्लोरोक्विन की गोलियॉं जो मलेरिया के इलाज के लिए दी जाती है, गर्भावस्था में पुरी तरह सुरक्षित है।