शरीर के आन्तरिक अंगों के लिए दी जाने वाली दवाएँ इन अंगों तक केवल रक्त संचरण द्वारा ही पहुँच सकती हैं। कोई दवा रक्त संचरण तक कैसे पहुँचती है इसके ४ तरीके हैं।
मुँह से ली गई दवा पहले लीवर में पहुँचती है (जहॉं ये टूटती है) और इसके बाद बड़ी शिराओं द्वारा दिल में पहुँचती है। इस प्रक्रिया में दवा के अवशोषण में करीब ३० से ६० मिनिट लगते हैं। हालॉंकि कुछ दवाएँ (जैसे माइक्रोफइन/ऐस्परीन) १० मिनटों में ही अवशोषित हो जाती हैं। इन्जैक्शन ज़्यादा दी गई दवाएँ तेज़ी से असर करते हैं क्योंकि इनसे दवा सीधे खून मे पहुँचती है।
प्राथमिक स्वास्थ्य के दायदे में तीन चौथाई बीमारियॉं मुँह से ली जाने वाली दवाओं द्वारा ही ठीक हो जाती हैं। यहॉं इन्जैक्शन की ज़रूरत सिर्फ आपातकाल में कभी कभार पड़ती है। एक बार दवा जब दिल तक पहुँच जाती है तो वहॉं से ये रक्त संचरण द्वारा फेफड़ों तक पहुँच जाती है।
यहॉं से ये दिल के बाएँ ओर वापस पहुँचती है और फिर धमनियों के माध्यम से पूरे शरीर के ऊतकों में फैलती है। दवा कुछ समय के लिए संचरण में रहती है यानि कि शिराओं या धमनियों में। दवा इनमें कितने समय तक रहती है ये इस पर निर्भर करता है कि –
आम तौर पर दवा जल्दी ही छोटे रेणूमें विभाजित होकर शरीर के बाहर भी कर दी जाती है। ये शरीर में बहुत थोड़ी सी देर के लिए ही रहती है। परन्तु अगर दवा खून के प्रोटीनों के साथ चिपकी रह जाए तो ये शरीर में ज़्यादा देर तक रहेगी। इसलिए कुछ दवाओं को दिन में ३ या ४ बार लेना पड़ता है और कुछ को १-२ बार। कुछ दवा का निरंतर इलाज जरुरी होता है। इसके लिये तो इलाज की अवधि में खून में दवा का स्तर सरासर समतल रखा जाना ज़रूरी होता है। यह बात खास कर जीवाणु नाशक दवाओं के लिए महत्त्वपूर्ण है।
कोई भी दवा देने से पहले लीवर और गुर्दो की हालत का जायजा लेना ज़रूरी होता है। अगर लीवरू और गुर्दे सामान्य रूप से काम नहीं कर रहे हैं तो दवा ठीक से पूरी तरह शरीर से बाहर नहीं निकलेगी। इससे ये शरीर में जमा हो जाएगी जो कि सेहत के लिए नुकसान देह है। इसलिए जिन लोगों को लीवरू या गुर्दो की बीमारियॉं हों उन्हें दवाएँ बहुत ध्यान से दी जानी चाहिए। जैसे कि पीलिया (लीवर के रोग) या फिर अमूत्रता के मरीज़ों को डॉक्टरी सलाह बिना कोई भी दवाएँ नहीं दी जानी चाहिए। ऐसे मरीज़ों के लिए विशेषज्ञों द्वारा इलाज ज़रूरी है।