जीवन के लिए खाना ज़रूरी है। हर एक समुदाय की सन्तुलित या पौष्टिक उपज और आहार की अपनी सोच होती है। समुदाय की खान पान की आदतें ज़्यादातर स्थानीय खाने की चीज़ों की उपलब्धता और मौसम पर निर्भर करता है। (ठण्डे क्षेत्रों के लोग ज्यादा वसा का प्रयोग करते हैं।) खाना शरीर के बढ़ने में और विकास में मदद करता है। इससे तीन बुनियादी काम होते हैं –
आज भी गेंहू सबसे लोकप्रिय खाद्यान्न है, चावल के तुलना में ज्यादा प्रथिन है |
जिन अनाजों में कार्बोहाईड्रेट और प्रोटीन दोनों होते हैं वो सारे विश्व में मूल आहार के रूप में इस्तेमाल होते हैं। इन्हीं से हमें अपना ज़्यादातर ऊर्जा मिलती है। वैसे अनाज के दानों से ही हमें अपना ज़्यादातर प्रोटीन भी मिलता हे। इन छोटे बीजों में उतना सारा प्रोटीन तो नहीं होता जितना कि मूँगफली या मॉंस में। परन्तु हम जितना सारा अनाज खाते हैं उसीसे हमें ज़्यादातर प्रोटीन और कार्बोहाईड्रेट मिल जाता है। ऐसा कैसे होता है? एक दिन के औसत खाने पर ध्यान दें। एक दिन में खाए गए अनाज की मात्रा लगभग आधा या एक किलो होती है। अनाज चावल है तो इससे ३५ से ७० ग्राम प्रोटीन मिल सकता है और अगर यह अनाज गेहूँ है तो इससे इसका दुगना प्रोटीन मिल सकता है।
इसके विपरीत अधिक प्रोटीन युक्त चीज़ों जैसे दालों या मूँगफली से केवल १० से २० ग्राम प्रोटीन ही मिल सकता है। ऐसा इसलिए होता है कि दिन भर में खाई गई दाल/मूँगफली की कुल मात्रा ५० से १०० ग्राम से ज़्यादा नहीं होती। इसलिए यह कहा जाता है कि खाने में अनाज की मात्रा पर्याप्त होनी चाहिए। कुपोषण अधिकतर कम खाना खाने से होता है प्रोटीन की कमी के कारण नहीं। लेकिन यह भी पूरा सच नही है। केवल अनाज पर्याप्त होनेसे कुपोषण की समस्या कम नही होगी, यह हम आगे देखेंगे।
शरीर में उर्जा से कई काम बनते है |
अग्नि से ऊर्जा, गर्मी और कुछ रोशनी मिलती हे। इसी तरह ऊर्जा प्राप्त करने के लिए शरीर को भी भोजन को जलाना पड़ता है। यह जलना शरीर के अन्दर कई एक जैवरासायनिक कदमों में पूरा होता है। इस प्रक्रिया में भोजन छोटे-छोटे भागों में बंट जाता है। इससे ऊर्जा का उत्पादन होता है। यह शरीर के हर हिस्से यानि सभी अंगों, मॉंसपेशियों और ऊतकों में होती है।
ऊर्जा का प्रमुख स्रोत अनाज (जो कि मुख्यत: मण्ड है) होता है शर्करा भी (शक्कर) मण्ड का एक रूप है। शुगर कई तरह से मिलती है जैसे दूध में लैक्टोज़ के रूप में, गन्ने में सुकरोज़ के रूप में और फलों में फ्रक्टोज़ के रूप में। मण्ड (गेहूँ और चावल जैसे अनाजों में) मिलता है और यह शक्कर के अणुओं की लम्बी कड़ी से बना होता है। इसी कारण अगर रोटी या चावल को खूब देर तक चबाया जाए तो मीठा स्वाद आने लगता है। ये अणु कार्बन, हाईड्रोजन और आक्सीजन के परमाणुओं से मिलकर बने होते हैं। इसी लिए इन्हें कार्बोहाईड्रेट कहा जाता है।
वसा से भी उर्जा मिलती है। वसा (घी और तेल) कार्बोहाईड्रेट की तुलना में दुगुनी उर्जा प्रदान करते हैं। इसका अर्थ है कि एक ग्राम वसा से उतनी ऊर्जा मिल सकती है जितनी कि २ ग्राम कार्बोहाईड्रेट से। परन्तु शरीर पहले कार्बोहाईड्रेट का इस्तेमाल करता है और बाद में वसा की बारी आती है। अतिरिक्त कार्बोहाईड्रेट भी शरीर में वसा के रूप में जमा हो जाते हैं।
शरीर में ऊर्जा की ज़रूरत उम्र, लिंग, शारीरिक श्रम और बाहरी तापमान पर निर्भर करती है। शरीर द्वारा पैदा की गई आधी ऊर्जा शरीर को गर्म रखने में और कुछ आधारभूत कार्य स्तर बनाए रखने के लिए होता है। ऊर्जा को कैलोरीज़ में नापा जा सकता है: एक ग्राम अनाज से (कार्बोहाईड्रेट) से ४ कैलोरीज़ ऊर्जा प्राप्त होती है।
उपापचयन एक लगातार होने वाली प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया जागते और सोते दोनों समय ही चलती रहती है। जब शरीर पूरी आराम की स्थिति में उपापचयन के स्तर को मूल उपापचयन दर या आधारी उपापचयन दर (बेसल मेटाबोलिक रेट, बी.एम.आर.) कहते हैं। बी.एम.आर. औरतों में (पुरुषों की तुलना में) व बूढ़े लोगों में कम होता है। आदमियों को आमतौर पर महिलाओं की तुलना में ज़्यादा ऊर्जा की ज़रूरत होती हे, तब भी दोनों एक ही काम कर रहे हों। उदाहरण के लिए अगर समान पूरी वजनवाले पुरुष व महिला को एक घडा पानी समान दूरी तक ले जानेके लिए पुरुष को ज़्यादा ऊर्जा की ज़रूरत होगी इसिलिये पुरुष महिला की तुलना में ज़्यादा खाना खाएगा। इसका एक कारण महिलाओं में उपापचयन में हारमोनों का विशिष्ट प्रभाव होता है।
शरीर की ऊर्जा की ज़रूरत उम्र, लिंग, मौसम और काम के प्रकार के अनुसार बदलती है। शरीर को गर्मियों के मुकाबले सर्दियों में ज़्यादा भोजन की ज़रूरत होती है। नीचे दी गई तालिका महिलाओं और पुरुषें में ऊर्जा की ज़रूरत को दर्शाती है।
हर काम के लिये उर्जा की जरुरी है |
आर्युवेद में माना गया है कि अलग-अलग शारीरिक गठन के अनुसार भी शरीर की ऊर्जा की ज़रूरत अलग-अलग है। कफ दोष वाले लोगों को कम कैलोरी की ज़रूरत होती है। पित्त दोष वालों को ज़्यादा ऊर्जा की ज़रूरत होती है। (आर्युवेद वाला अध्याय देखें)। अगर शरीर को बहुत देर तक भोजन न मिले तो वो जमा हुई वसा का इस्तेमाल कर लेता है। जब शरीर का वसा का भण्डार भी खतम हो जाता है (इस स्थिति में शरीर बहुत कमज़ोर दिखाई देने लगता है) तो वो ऊर्जा के उत्पादन के लिए प्रोटीन का इस्तेमाल शुरू करता है। यह गम्भीर स्थिति होती है और यह पोषण संकट की सूचक है (जैसा कि अंकाल, बेहद गरीबी और लम्बे व्रतों या भूखहड़ताल के समय होता है)। बचपन में ऐसा संकट आनेसे शरीर की विकास में कमी आ जाती है।
सुरजमुखी तेल से दिल को कम बाधा पहुँचती है |
वसा न केवल ऊर्जा प्रदान करता है बल्कि जोड़ों को चिकनाई प्रदान करता है, मुलायम अंगों को बाहरी चोट से सुरक्षित रखता है और शरीर को सर्दी से बचाता है। वसा दो तरह का हो सकता है दिखाई देने वाला याने प्रकट (जैसे तेल, घी और मख्खन में) और छिपा हुआ याने अप्रकट (जैसे मूँगफली, मक्का, गेहूँ और कुछ फलों में)। बहुत अधिक मात्रा में वसा का सेवन शरीर के लिए नुकसानदायक है। इससे मोटापा और दिल की बीमारियॉं हो सकती हैं। हर दिन की वसा की ज़रूरत (अलग-अलग रूपों में) ५० ग्राम होती है। शरीर कुछ वसा का निर्माण अतिरिक्त कार्बोहईड्रेट से करता है। परन्तु कुछ फैटी एसिड (वसा तत्व) शरीर में नहीं बनते। ये कुछ खास कामों के लिए ज़रूरी होते हैं। चूँकि शरीर इन्हें नहीं बना पाता, खाने में इनका होना आवश्यक है।
सभी प्रकट वसा की चीज़ें जैसे तेल घी आदि महॅंगी होती हैं। भारत में वसा सम्पन्न को ही मिल पाने वाली चीज़ हो गई है। उच्चवर्गीय लोग ज़रूरत से ज़्यादा वसा खा लेते हैं। इधर ज़्यादातर लोगों को ज़रूरी वसा भी नहीं मिल पाता। इससे उच्चवर्गीय लोगों को तो मोटापे और दिल के रोगों की समस्याएँ हो जाती हैं। और गरीब लोगों में वसा की कमी से अनेकों रोग हो जाते हैं। खासकर आदिवासी लोगों के भोजन में अक्सर ही वसा की कमी होती है। गरीब वर्ग के जादातर लोग प्रतिदिन ५ ग्राम वसा से भी वंचित है, जबकि उन्हें कम से कम ५० ग्राम की ज़रूरत होती है।