health law स्वास्थ्य कानून
चिकित्सा और कानून

दुर्घटनाऍ, बलात्कार, आत्महत्या, हत्या, लड़ाईयॉ, भोजन में ज़हर दिए जाने औरशराब पीकर गाड़ी चलाने की धटना आदि के मौकों पर चिकित्सीय सहायता के साथ साथ कानूनी जवाबदेही भी जरूरी होती है। इस अध्याय में आपको चिकित्सीय और कानूनी जवाबदारीयों बातों के बारे में कुछ बुनियादि जानकारी दी जाएगी। ऊपर जिन जिन दुर्धटनाओं की सूची दी गई है उनमें से किसी धटना के होने का पता चलते ही उस धटनास्थल से संबंधित पुलिस थाने या गॉंव के पटवारी को तुरंत किसी भी माध्यम से सूचना देंनी चाहिये।
घटना दर्ज होने के बाद पुलिस मामले को चिकित्सीय राय के लिए सरकारी डॉक्टरों के पास भेज देती है। जब डाक्टर पीडित/ता की व्यक्तिगत जानकारी और पुरी घावो का विवरण लिखकर अपने रिकार्ड और साथ आये पुलिस कर्मचारीको आगे की कार्यवाही के लिये सौप देता है इस प्रक्रिया को मेडिकोलिगल केस (एम एल सी) कहा जाता है।
कभी कभी इन हादसों के शिकार लोग खुद ही या औरों द्वारा सीधे सरकारी या प्रायवेट अस्पताल पहुँचा दिए जाते हैं और जब डाक्टर पीडित(ता) की व्यक्तिगत जानकारी और पुरे घावो का विवरण लिखकर अपने रिकार्ड में रख कर और फिर मामला दर्ज करने के लिए पुलिस को संबंधित थाने से बुलाया जाता है। इस प्रक्रिया को प्री मेडिकोलिगल केस (प्रीएम एल सी ) कहा जाता है। इसके लिए निजी डॉक्टर भी सर्टिफिकेट दे सकते हैं। पीडित(ता) द्वारा स्वंम कोर्ट में मजिस्ट्रेट के सामने आवेदन पर भी केस दर्ज होने पर कोर्ट के द्वारा भी चिकित्सीय परिक्षण्कराया जाता है। जेल में सजा काट रहे रोगियोको भी बिमार पडने पर चिकित्सीय परिक्षण् कराया जाता है।यह कार्य कानुनी संरक्षण में किया जाता है।
किसी घटना में किस तरह काकानुनी मामला दर्ज होगा यह इस पर निर्भर करता है कि पीडित(ता) को किस तरह की चोट पहुँची है। बलात्कार, हत्या, आत्महत्या, ज़हर दिया जाना, शराब पीकर गाड़ी चलाना, यौन हिंसा और शादी के 7 सालों के अन्दर किसी महिला की मौत होना आदि हमेशा ही पुलिस हस्तक्षेप के मामले हैं। ऐसे मामलों में अगर कोई रिपोर्ट न भी करे तो भी चिकित्सा के दौरान पुलिस को सूचना देना किसी भी पंजीक़त डाक्टर की डुयटी में शामिल होता है। उसके बाद अपने आप केस दर्ज करना होता है। परन्तु जिस किसी को भी ऐसी किसी घटना का पता चले उसे भी पुलिस को इसकी जानकारी देनी होती है।

गंभीर चोटें जो पुलिस हस्तक्षेप के मामले हैं
  • हड्डी टूटना।
  • चेहरा बिगाड़ दिया जाना।
  • हाथ पैर या किसी भी संवेदना का खो देना।
  • वृषण निकाल दिया जाना या आहत होना ।
  • दांत टूटना।
  • कोई भी चोट जिससे जान को खतरा हो सकता है।
  • किसी भी धारदार चीज़ जैसे चक्कू से चोट लगना।
  • कोई भी चोट जिसमें अस्पताल में २० दिनों से ज़्यादा इलाज की ज़रूरत हो।

इसके अलावा और कई तरह की चोटें परिभाषा के हिसाब से गंभीर नहीं मानी जातीं। इन सब में यह ज़रूरी नहीं है कि पुलिस अपने आप से हस्तक्षेप करे, इसलिए वह हताहत से अपने आप अलग से निजी रूप से अभियुक्त के खिलाफ शिकायत दर्ज करने के लिए कह सकती है।

चिकित्सीय सर्टिफिकेट (प्रमाण पत्र)
  • सभी तरह की चोटों में मेडिकल याने चिकित्सीय सर्टिफिकेट की ज़रूरत होती है। चिकित्सीय सर्टिफिकेट डॉक्टर द्वारा पूरी चिकित्सीय जॉंच के बाद दिए जाते हैं। ये चिकित्सीय सर्टिफिकेट न्यायालय में प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किए जा सकते हैं। अगर मामला किसी तरह के झगड़े का हो तो चिकित्सीय सर्टिफिकेट या तो सीधे पुलिस या हताहत व्यक्ति को दिए जाते हैं। कभी कभी एक संबंधित पार्टी पुलिस से किसी और मकसद के लिए भी चिकित्सीय सर्टिफिकेट हासिल कर सकती है। चिकित्सीय सर्टिफिकेट के बारे में कुछ बुनियादी जानकारी होना ज़रूरी है।
  • चिकित्सीय राय या चिकित्सीय सर्टिफिकेट की पहली प्रति के लिए सरकारी डॉक्टरों को कोई भी फीस देने की ज़रूरत नहीं होती है। इसके बाद की कॉपियों के लिए ही फीस देनी पड़ती है। पुलिस हमेशा पहली प्रति ही मांगती है इसलिए इसके लिए पैसे की ज़रूरत नहीं होती। अगर चिकित्सीय कर्मचारी किसी तरह की कोई फीस लेता है तो उसे इसके लिए रसीद देनी चाहिए।
  • अकसर चिकित्सीय कर्मचारी हताहत को किसी अगले स्तर के स्वास्थ्य केन्द्र जैसे जिला अस्पताल भेजता है। ऐसे में ज़रूरी है कि उस डॉक्टर या चिकित्साकर्मी से चिकित्सीय सर्टिफिकेट लिया जाए जिसने सबसे पहले जॉंच की है। ऐसा इसलिए क्योंकि कोर्ट में पहले चिकित्सा कर्मी की गवाही ही साक्ष्य के रूप में महत्व रखती है।
  • घटनाओं में जहॉं पुलिस हस्तक्षेप की ज़रूरत होती है पुलिस आमतौर पर खुद ही चिकित्सीय सर्टिफिकेट बनवा लेती है। कानून के अनुसार यह उनकी डयूटी है। परन्तु उन घटनाओं में जहॉं पुलिस हस्तक्षेप अनिवार्य नहीं है हताहत को चाहिए कि वह खुद यह चिकित्सीय सर्टिफिकेट हासिल करे।
  • यह ज़रूरी है कि चिकित्सीय सर्टिफिकेट की एक सत्यापित (अटैस्टिड) फोटोकॉपी आगे के इस्तेमाल के लिए रखी जाए। अकसर पहली प्रति बार बार इस्तेमाल के कारण फट जाती है या ऐसी हो जाती है कि उसमें कुछ भी पढ़ा जाना मुश्किल हो जाता है।
  • घटना की गंभीरता के हिसाब से पुलिस को ज़रूरी कार्यवाही करनी होती है। आमतौर पर वो ऐसे मामलों में कुछ नहीं करती जिनमें कानून के अनुसार उसका हस्तक्षेप अनिवार्य नहीं होता। ऐसे में हताहत को खुद ही मामला दर्ज करवाना होता है।
  • वैसे छोटे मोटे झगड़ों में यही बेहतर रहता है कि कानूनी पचड़ों में पड़े बिना दोनों पार्टियॉं आपस में ही उन्हें निपटा लें। क्योंकि कई बार ज़रा ज़रा सी बात में कानूनी पचड़ों में पड़ जाने से बहुत अधिक समय, मानसिक शक्ति और पैसा बर्बाद हो जाता है।

 

डॉ. शाम अष्टेकर २१, चेरी हिल सोसायटी, पाईपलाईन रोड, आनंदवल्ली, गंगापूर रोड, नाशिक ४२२ ०१३. महाराष्ट्र, भारत

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