पीलिया लीवर (यकृत) के शोथ से होता है और एक बहुत आम बीमारी है। त्वचा का पीला पड़ना, खून व त्वचा में अत्यधिक बिलिरुबिन के कारण होता है। बिलिरूबिन, हीमोग्लोबिन के चयापचय से बनने वाला एक प्राकृतिक पदार्थ हे। यह आम हालकत में भी उपस्थित होता है और इसीके कारण पेशाब व पखाने में पीला रंग आता है। जब ये ठीक से शरीर से बाहर नहीं निकलता तो इससे पीलिया हो जाता है। इसमें आँखों व त्वचा का रंग पीला हो जाता है।
पीलिया, खून की लाल रक्त कोशिकाओं के टूटने की गति के बढ़ने से होता है। नवजात शिशुओं में यह जन्म के दो तीन दिन बाद अक्सर होता है। पुरानी लाल रक्त कोशिकाओं की जगह नई कोशिकाएँ बन रही होती हैं जो कि गर्भ के बाहर जीवन के लिए ज़्यादा उपयुक्त होती है। वयस्कों में पीलिया तीन प्रकार का होता है –
वायरस से होने वाला हैपेटाईटिस उन सभी समुदायों में पीलिया का सबसे ज़्यादा होने वाला प्रकार है। यह कम साफ हालातों में रहते हैं। हैपेटाइटिस का वायरस भी छह प्रकार का होता है।
चिकित्सीय रूप से सभी तरह के वायरस से होने वाला हैपेटाईटिस एक जैसे दिखते हैं। परन्तु ए में आमतौर पर सबसे ज़्यादा तकलीफ होती है। इसमें सभी लक्षण ज़्यादा गम्भीर होते है। टाईप बी मन्द सा दिखता है पर इससे लीवर में हमेशा के लिए खराबी आने की सम्भावना ज़्यादा होती है और इसलिए ये ज़्यादा खतरनाक है। टाईप डी वायरस की छूत या तो टाईप बी वायरस की छूत के साथ होती है या फिर कभी-कभी टाईप बी की छूत से ग्रस्त रोगी में बाद में हो जाती है। पहली स्थिति में मन्द से तीव्र हैपेटाईटिस हो सकती है और दूसरी में अधिक गम्भीर चिरकारी प्रकार का रोग हो सकता है।
टाईप ई वायरस चिकित्सीय रूप से व जानपदिक रूप से टाईप ए वायरस से मिलता जुलता है। इसका संक्रमण मन्द होता है और अपने आप ठीक भी जो जाता है। गर्भवती महिलाओं में अगर यह संक्रमण गर्भ के तीसरे त्रिमास में हो तो इससे मृत्यु हो जाने की सम्भावना 20 से 40 प्रतिशत होती है। टाईप जी वायरस उन लोगों में ज़्यादा होता है जिन्हें नशीली दवाइयों की लत होती है और जो इसके लिए इन्जैक्शन का इस्तेमाल करते हैं। इसके अलावा खून बेचने वालों, रोगियों जिन्हें बार-बार खून या खून के पदार्थ दिए जाने या हीमोडायलिसिस की ज़रूरत होती है परन्तु यह वायरस कैसे छूत फैलाता है और बीमारी पैदा करता है इसके बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं है हैपेटाइटिस के प्रकार का पता करने के लिए खून की जॉंच ज़रूरी है।
पेशाब के एक आसान से टैस्ट से काफी जानकारी मिल जाती है। कुछ मिलीमीटर पेशाब एक परखनली टैस्टट्यूब या बोतल में लें। इसे तेजी से हिलाएँ। अगर व्यक्ति को पीलिया है तो पेशाब में पीले रंग का झॉंग दिखाई देगा। अगर व्यक्ति को पीलिया नहीं है तो उसके पेशाब से न तो लम्बे समय तक टिके रहने वाला झॉंग बनेगा और न उसका रंग पीला होगा। बिलिरूबिन की जॉंच के लिए रासायनिक पटि्टयॉं मिलती हैं। पर ये पटि्टयॉं थोड़ा महॅंगी होती हैं। एक बोतल में पचास पटि्टयॉं होती हैं। एक महीने खुले रहने से ये पटि्टयॉं काम करना भी बन्द कर देती हैं। ये पटि्टयॉं उन दवाखानों के लिए ठीक रहती है जहॉं हर दिन खूब सारे टैस्ट होते हैं।
खून की जॉंच से कई चीज़ों का पता चलता है जैसे बिलिरूबिन की मात्रा, लीवर को कितना नुकसान हुआ है और कौन से वायरस से बीमारी हुई है। बीमारी में समय के साथ कैसे बदलाव आते हैं: सबसे आम तरह के हैपेटाईटिस यानि ए और बी में व्यक्ति दो से चार हफ्तों तक बीमार रहता है। उसके बाद ठीक होना शुरू हो जाता है।बीमारी के शुरू के दिनों में रोगी को बहुत ही ज़्यादा तकलीफ होती है पर धीरे-धीरे भूख लगना शुरू हो जाती है और ताकत वापस आने लगती है कभी-कभी लीवर के ऊतकों को नुकसान पहुँच सकता है। और उससे हैपॅटिक कोमा (हैपॅटिक गहरी बेहोशी) हो जाती है। ऐसा होने से मौत भी हो सकती है| नींद के चक्र में रूकावट आना हैप्टिक कोमा का एक सबसे महत्वपूर्ण सूचक है। इसके बाद ग्लानि और बेहोशी हो जाती है।
सभी तरह के हैपेटाइटिस में लीवर खराब हो जाने का (यानि लीवर सिरोसिस का) खतरा होता है। परन्तु यह खतरा बी टाईप में सबसे ज़्यादा होता है। इस हिसाब से हैपेटाईटिस बी उतनी ही खतरनाक बीमारी है जितनी की एड्स। और दोनों एक ही तरह से फैलती हैं। लीवर सिरोसिस एक ऐसी बीमारी है जिससे धीरे-धीरे करके मौत हो जाती है। यह कई बार हैपेटाईटिस होने के कई महीनों बाद भी हो सकती है। सिरोसिस का शुरुआती लक्षण है पेट में द्रव का जमा होना जिसे जलोदर (एसाईटिस) कहते हैं।
हैपेटाईटिस का संक्रमण दूषित पानी, जीवाणुयुक्त खून या प्लाजमा फेक्टर (खून के अलग-अलग किए गए हिस्सों), संक्रमण वाले ऊतकों के प्रत्यारोपण से, संक्रमितसुइयों, यौन सम्पर्क या गर्भस्थ शिशु को मॉ से संचरण होता है। आज तक कोई भी कोई प्रति वायरस दवाई नहीं बन पाई है। जिन लोगों को चिरकारी हैपेटाइटिस होता है उनके इलाज के कुछ दवाइयॉं जैसे रिबाबिरीन, टेनोफोवीर, फम्सीक्लोबीर या लैमीवुडीन का इस्तेमाल होता है। हैपेटाईटिस ए और बी से बचाव के लिए टीका लगाया जाता है। बी से बचाव के लिए लगाए जाने वाले टीके से डी प्रकार के हैपेटाइटिस से भी बचाव हो जाता है।
इसके अलावा खून और खून के अवयवों और प्रत्यारोपण के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले ऊतकों (जैसे गुर्दा) की जॉंच भी बीमारी से बचाव के लिए ज़रूरी है। एक बार इस्तेमाल हुई पिचकारी और सुइयों को इस्तेमाल करना भी बीमारी से लड़ने का हिस्सा है। और अगर कोई व्यक्ति बीमारी का वाहक है तो उसके साथ किसी भी तरह के द्रव का लेना देना भी रोकना चाहिए। हैपेटाईटिस बी का टीका तीन खुराकों में मिलता है। यह उन लोगों के लिए ज़रूरी है जिन्हे बीमारी का खतरा ज़्यादा है जैसे स्वास्थ्य का काम करने वाले लोगों को, या फिर यौन व्यापार करने वाली महिलाओं को। सभी बच्चों को यह टीका लगाना ज़रूरी नहीं है। लेकिन हेपॅटायटीस टीका अब राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम में शामिल किया गया है|