यह जीवाणूओं से होने वाली एक बीमारी है। यह चूहों, सुअरों और कुत्तों में काफी आम होती है। कभी-कभी यह मवेशियों और चिड़ियों में भी हो जाती है। इनमें से कुछ जानवर बीमारी के सिर्फ वाहक होते हैं और उनमें असल में बीमारी नहीं होती। जिन जानवरों को ये संक्रमण हो जाती है उनके पेशाब में इसके जीवाणू होते है। ये जीवाणू कई कई दिनों तक पानी में रह सकते हैं। ऐसे दूषित पेशाब या पानी के सम्पर्क में आने पर मनुष्य को भी यह संक्रमण हो सकता है। जीवाणू आँखों, मुँह के अन्दर की श्लेष्मा की परत, जख्म वाली त्वचा और आँतों से अन्दर घुसते हैं। एक से दो सप्ताह में संक्रमण खून में फैल जाता है। व्यक्ति को हल्की या गम्भीर तकलीफ हो सकती है और ऐसा भी हो सकता है कि बीमारी के कोई लक्षण न दिखें (वाहक अवस्था)। ऐसे सभी लोगों के पेशाब में रोग के जीवाणू होते हैं। इस बीमारी –(लैप्टोस्पाईरोसिस) के जीवाणू सिफिलिस के जीवाणू जैसे होते हैं। संक्रमण से पूरे शरीर की खून की बारीक नलियों में शोथ हो जाता है। जीवाणू लीवर, गुर्दो, आँखों में रहते हैं। इसलिए लक्षण भी इन्हीं अंगों से सम्बन्धित रहते हैं।
यह बीमारी गॉंवों में अपने कुत्तों के साथ या चूहों आदि के सम्पर्क में आए लोगों को हो सकती है। शहरों में झोपड़-पट्टी में रहने वाले लोगो, मलनाली में काम करने वाले लोगों और जानवरों को सम्भालने वाले या कुत्ते पकड़ने वाले लोगों में अक्सर हो जाती है। ध्यान रखना चाहिए कि सिर्फ अशुद्ध पेशाब ही नहीं बल्कि ऐसे पेशाब से दूषित पानी से भी या संक्रमण हो सकता है। अगर त्वचा में छोटा सा भी जख्म या कट हो तो ऐसे पानी में चलने से संक्रमण हो सकती है। इस संक्रमण के लगने के लिए तैराकी की जगहें भी खतरनाक होती है। बरसात के मौसम में गन्दे पानी के नालों में से पानी बाहर बह सकता है और इससे जीवाणू मनुष्यों की त्वचा के सम्पर्क में आ सकते हैं।
हल्की या गम्भीर बीमारी में थोड़ी सी बीमारी होने पर बुखार, सिर में दर्द, बदनदर्द, आँखें में भराव होना, गला खराब होना और हल्की खॉंसी आना जैसी शिकायत होती है। गम्भीर बीमारी होने पर ये सारे लक्षण तो होते ही हैं और साथ में अन्य कई अंगों पर भी असर हो सकता है। जैसे लीवर में सूजन, उल्टियॉं, पीलिया, त्वचा पर चकत्ते, पेशाब में खून आना और श्वासनली के निमोनिया के कारण थूक के साथ खून निकलना।
दूसरी अवस्था में सिफलिस जैसे, लैप्टोस्पाईरोसिस के जीवाणू भी खून में से गायब हो जाते हैं। फिर यह जीवाणू अपने प्रतिपिण्डों द्वारा नुकसान पहॅंचाते है। इसलिए ३ से ४ दिनों की शान्ति के बाद, दिल का शोथ, दिमाग, गुर्दों और जिगर का शोथ, मस्तिष्कावरणशोथ शुरू हो जाता है। इस अवस्था में भी बुखार होता है। पर ज़्यादा बड़ी तकलीफें अन्य अंगों की होती है। दिल के शोथ के कारण दिल के धीमें पड़ने, रक्तचाप के कम होने और छाती में दर्द की समस्या होती है। मस्तिष्कावरणशोथ में सिर में दर्द, उल्टियॉं, भ्रम, बेहोशी और गर्दन में ऐठन हो जाती है। जिगर के शोथ से सूजन, पीलिया और गूर्दे के शोथ से पेशाब में प्रोटीन व खून जाने की शिकायत होती है और आखिर में इससे गुर्दे फेल हो जाते है। बीमारी ३ से ६ सप्ताह चलती है और अगर इसका इलाज न हो तो इससे खासकर गुर्दे के फेल होने से रोगी की मृत्यु भी हो सकती है।
शुरुआती अवस्था में निदान लक्षणों और चिन्हों से होता है। बाद में इससे खून, पेशाब,मस्तिष्क जलन में बदलाव आ जाता है। किसमें बदलाव आता है यह इस पर निर्भर करता है कि कौन से अंग पर असर हुआ है। इसलिए एक रोगी के छाती के एक्स-रे में निमोनिया निकल सकता है, दूसरे के दिल की बीमारी होने के कारण इसीजी में बदलाव दिख सकते हैं। पेशाब की जॉंच में प्रोटीन निकलता है। लैप्टोस्पाइरोसिस से हुए पीलिया में बिलिरूबिन और एन्जाइम के स्तर में बढ़ोतरी भी हो जाती है।
सभी गम्भीर मामलों में रोगी को अस्पताल भेजे। आमतौर पर मुँह से ऐमोक्सीसेलीन देकर इलाज शुरू कर सकते हैं। थोड़ी सी बीमारी होने पर दिन में दो बार डौक्सीसाइक्लीन देने से फायदा होता है। ऐस्परीन नहीं देना चाहिए क्योंकि इससे खून को और नुकसान हो सकता है। बुखार और बदन दर्द कम करने के लिए पैरासिटेमॉल अच्छी रहती है। अगर हम समय से इलाज शुरू कर दें तो ज़्यादातर रोगी पूरी तरह ठीक हो सकते हैं। देरी से महत्वपूर्ण अंगों में खराबी आ जाती है।
यह अस्वच्छ हालातों की बीमारी है। सूअरों, आवारा कुत्तों और चूहों की रोकथाम ज़रूरी है। असल में चूहों की रोकथाम कई एक बीमारियों से बचाव के लिए ज़रूरी है जैसे प्लेग, क़मि, अलर्क (रेबीज) आदि। ऐसे लोगों में जिनको बीमारी होने का खतरा हो हर सप्ताह २०० मिलीग्राम डौक्सीसाइक्लीन देने से बीमारी से बचाव हो सकता है। इसलिए आम स्वच्छता और आवारा कुत्तों और सूअरों आदि पर नियंत्रण ज़रूरी और उपयोगी है।