बच्चेदानी या गर्भाशय का छेदचित्र |
बहुत से अल्प विकसित जीव अपने आप में से ही अपनी सन्तान पैदा करते हैं। यानि कि नर मादा के संभोग के बिना। परन्तु तुलनात्मक रूप से ऊपर के दर्जे के पेड़ पौधों में द्विलिंगी प्रजनन होता है। यानि नर और मादा जनन कोशिकाओं के समागम से नया जीव बनता है।
कीड़े, मछलियॉं, मेंढक, सरीसृप और चिड़ियॉं अण्डे देते हैं, जिनमें से बाद में बच्चा निकलता है। अण्डों में शुरूआती पोषण के लिए सभी कुछ होता है। सभी स्तनधारी जीव (जिनमें मनुष्य भी शामिल है) सीधे बच्चे को जन्म देते हैं और उसे स्तन पान करवाते हैं।
पुरुषों में जनन अंग मुख्यतया बाहर होते हैं और स्त्रियों में अन्दर। पीयूषिका ग्रंथि के नियंत्रण में जनन कोशिकाएँ पुरुष और स्त्री में यौन हॉरमोन बनाती हैं। वृषण (यानि पुरुष जनन ग्रंथि) शुक्राणु (नर जनन कोशिका) और पुरुष हॉरमोन (टैस्टोस्टेरोन) बनाते हैं। शुक्र वाहिकाएँ फिर इन्हें शुक्रकोश तक पहुँचाती हैं। ये कोश पेशाब की थैली के नीचे होते हैं और इनमें वीर्य इकट्ठा होता है। वीर्य सम्भोग के समय में मूत्रमार्ग में पहुँच जाता है। और मूत्रमार्ग इसे लिंग तक पहुँचाता है। इसलिए आमतौर पर ढीला सा रहने वाला लिंग सम्भोग के समय कड़ा होकर खड़ा हो जाता है।
मादा अण्डे के निषेचन के लिए बहुत बड़ी संख्या में शुक्राणु पैदा होते हैं। सम्भोग के समय करीब २ से ३ मिली लीटर वीर्य एक साथ निकलता है। इसमें लाखों शुक्राणु होते हैं। बहुत से शुक्राणु कोख में पहुँचने से पहले ही मर जाते हैं। डिम्बवाही नली में केवल एक शुक्राणु ही अण्डे के साथ मिलता है।
डिम्बग्रंथियॉं (महिला जनन ग्रंथियॉं) श्रोणी में होती हैं। ये ग्रंथियॉं डिम्ब (महिला जनन कोशिका) बनाती हैं। आमतौर पर एक महीने में एक डिम्ब बनता है। ये ग्रंथियॉं महिला प्रजनन हॉरमोन – प्रोजेस्टेरान और एस्ट्रोजन भी बनाती हैं। डिम्बवाही नलियॉं परिपक्व अण्डे को गर्भाशय तक पहुँचाती हैं। गर्भाशय के द्वार को गर्भाशय ग्रीवा कहते हैं। इसमें श्लेष्मा (जैली) बनती है जिसकी मदद से शुक्राणु बचे रहते हैं और इसमें तैरकर अण्डे तक पहुँचते हैं।
सम्भोग के समय खड़ा हुआ लिंग महिला की योनि में प्रवेश करता है। योनि में स्थित पेशियों की तह सम्भोग के समय सिकुड़ जाती है और इसके चूसक असर से शुक्राणु गर्भाशय तक पहुँच जाते हैं। डिम्बग्रंथियों में होने वाले मासिक चक्र के बदलाव पीयूषिका ग्रंथि के हारमोनों पर निर्भर करते हैं। गर्भाशय और गर्भाशय ग्रीवा में भी डिम्बग्रंथियों के हारमोनों के कारण मासिक बदलाव होते हैं। मासिक चक्र के बारे में विस्तार से हम बाद के अधयायों में पढ़ेंगे।
मासिक चक्र के लगभग बीच में अगर शुक्राणु अण्डे को निषेचित कर दे तो ये निषचित डिम्ब फिर डिम्बवाही नलियों में से गुज़र कर गर्भाशय में स्थापित हो जाता है। इसके बाद नाल और भ्रूण विकसित होते हैं। भ्रूण की कोशिकाओं की संख्या धीरे-धीरे बढ़ती जाती है। और साथ ही विभिन्न अंग भी बन जाते हैं। परन्तु अगर डिम्ब निषचित न हो तो ये मर जाता है। अण्डोत्सर्ग के करीब दो हफ्तों के बाद गर्भाशय मासिक बहाव के माध्यम से अपने अन्दरूनी अस्तर को बाहर फैंक देता है। लड़कियॉं व लड़के आमतौर पर दूसरे दशक में यौवनावस्था में प्रवेश कर लेते हैं। आदमियों में शुक्राणु बनाने की क्षमता बुढ़ापे तक रहती है। और एक पुरुष अपने जीवन काल में अरबों शुक्राणु बनाता है।
महिलाओं की प्रजनन की अवधि साधारणत: दूसरे दशक के शुरूआत से लेकर पॉंचवे दशक तक रहती है। इसलिए महिला की बच्चे पैदा करने की अवधि ३५ से ४० साल की होती हे। महिला की प्रजनन क्षमता तीसरे दशक में सबसे ज़्यादा होती है और उसके बाद कम होने लगती है। एक महिला के शरीर में पूरे जिन्दगी में ज़्यादा से ज़्यादा ४०० अण्डे बनते है।
त्वचा शरीर की सुरक्षा करती है। इसमें दो परतें होती हैं- बाहरी परत (एइपिडर्मिस) अन्दरूनी परत (डर्मिस)। बाहरी परत में कोशिकाओंकी पतली परतें होती हैं। टूट-फूट के कारण ये कोशिकाएँ लगातार उतरती रहती हैं। अन्दरूनी त्वचा में तन्तुई ऊतक और कोशिकाएँ होती हैं जो बाहरी त्वचा की भरपाई करती रहती हैं। डर्मिस में पतली खून की कोशिकाएँ और नसें होती हैं। त्वचा का रंग मैलेनिन नाम के रंजक की मात्रा पर निर्भर करता है।
नाखूनों में न तो खून बहता है और न ही इनमें कोई नसें होती हैं। इसलिए काटने पर न तो इनमें से खून निकलता है और न ही इनमें दर्द होता है। नाखून गुलाबी दिखाई देते हैं क्योंकि नाखूनों के नीचे की त्वचा में खून की सूक्ष्म वाहिकाएँ होती हैं। इसलिए नाखून जीभ और आँखों की तरह स्वास्थ्य की स्थिति के सूचक होते हैं। नाखूनों के नीचे की त्वचा में नसें होती हैं। इसलिए नाखूनों में चोट लगने या छूत होने पर इन तंत्रिकाओं के कारण दर्द होता है।
किसी भी तरह की संक्रमण से लड़ने की हमारे शरीर की क्षमता प्रतिरक्षा कहलाती है। जब रोगाणुओं से शरीर का सामना होता हे तो प्रतिरक्षा बढ़ जाती है। पर ऐसा तभी हो पाता है जब व्यक्ति सुपोषित हो। प्रतिरक्षा तंत्र में बहुत सारे अंग और ऊतक शामिल होते हैं, जैसे थाइमस, अस्थि मज्जा, लसिका गॉंठें, रक्त कोशिकाएँ व प्लाज़मा और लीवर। व्यक्ति की संवेदनाओं और विचारों का भी प्रतिरक्षा पर कुछ असर होता है।
कीटाणु, एलर्जी करने वाले पदार्थ और रोगविष लगातार शरीर की रोगों से लड़ने की क्षमता पर हमला करते रहते हैं। जब इन दोनों के बीच लड़ाई होती है तो ये शोथ के रूप में दिखाई देती है। प्रतिरक्षा और शोथ आपस में जुड़े हुए हैं। प्रतिरक्षा से शोथ होता है। और फिर शोथ से फिर से प्रतिरक्षा क्षमता बढ़ती है। ऐसा कैसे होता है यह हम अन्य अध्याय में देखेंगे। शोथ असल में एक लडाई है।
जब भी कोई नया रोगाणु शरीर पर हमला करता है तो शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र उसे पहचानना और उससे लड़ना सीख लेता है। यह फिर खास तरह के प्रतिपिण्ड और लड़ाकू कोशिकाएँ बनाता है। जब दोबारा उसी तरह का हमला होता है तो प्रतिरक्षा तंत्र पिछले बार के अनुभव और यादो के कारण शीघ्र प्रतिक्रिया करता है। इस बार लड़ाई के लिए खास तरह के प्रतिपिण्ड और कोशिकाएँ होती हैं। यह भी एलर्जी का ही एक रूप है। प्रतिरक्षा तंत्र भ्रूण की अवस्था में ही बनना शुरू हो जाता है। थाईमस ग्रंथि इसमें मदद करती है। परन्तु नवजात शिशु में ज़्यादा सक्रिय प्रतिरक्षा नहीं होती है। उपयोगी प्रतिपिण्ड मॉं से बच्चे में नाड़ के माध्यम से पहुँच जाते हैं। कुछ और प्रतिपिण्ड पहले २-३ दिनों के मॉं के खास तरह के दूध से बच्चे को मिल जाते हैं। इसे निष्क्रीय प्रतिरक्षा कहते हैं क्योंकि ये बच्चे को बनी बनाई मिलती है।
सक्रिय प्रतिरक्षा हमें कीटाणुओं और बाहरी पदार्थों के माध्यम से मिलती है। खून के कुछ हिस्से जैसे प्लाज़मा, ग्लोबयूलिन और सफेद रक्त कोशिकाएँ की भी प्रतिरक्षा में भूमिका होती है। आमतौर पर कोशिकाएँ जीवाणुओं से निपटती हैं और ग्लोब्यूलिन रोगविष से। फिर इस तरह से पकड़े गए प्रतिजनों को (जीवाणु या रोगविष) तोड़ फोड़कर शरीर के बाहर फैंक दिया जाता है। प्रतिरक्षा कृत्रिम रूप से भी पैदा की जा सकती है, टीकाकरण (वैक्सीन देकर) के द्वारा या फिर बने बनाए प्रतिपिण्ड शरीर को देकर। इसके बारे में भी हम अन्य अध्याय में पढ़ेंगे।