जीवसृष्टी का क्रमिक विकास |
हम जो खाना खाते हैं वो आखिर में कहॉं पहुँचता है? हम कहॉं और किस अंग से सोचते हैं? शुक्राणु अण्डे से कहॉं मिलते हैं? पीलिया में असल में किस अंग पर असर होता है? क्षतिग्रस्त त्वचा किस तरह से फिर से ठीक हो पाती है? दवाइयॉं उस जगह पर कैसे पहुँचती हैं जहॉं उन्हें असर करना होता हैं? अगर हम स्वास्थ्य और बीमारी के बारे में समझना चाहते हैं तो ऐसे बहुत से सवालों के जवाब जानना ज़रूरी है। हमें पता होना चाहिए कि क्या कहॉं है। और हमें स्वास्थ्य और बीमारी के बारे में बुनियादी जानकारी की भी ज़रूरत है।
इस अध्याय में हम देखेंगे कि शरीर कैसे कोशिकाओं से अंगों और अंगों से तंत्रों के रूप में संगठित होता है। बाद के अध्यायों में हम अलग-अलग तंत्रों के बारे में विस्तार से पढ़ेंगे। इन शुरूआती कुछ पृष्ठों से हम शरीर का एक ढॉंचा बना सकेंगे। और साथ ही जीवन की प्रक्रियाओं जैसे पाचन, सॉंस लेने, दिल की धड़कन आदि के बारे में समझ पाएँगे। और क्या आपको पता है कि मनुष्य पृथ्वी पर बसने कैसे आया? या फिर पहला मानव पृथ्वी पर कहॉं से या कैसे आया?
आज की स्थिति में भोर कमीटी की रिपोर्ट बहुत ही भारीभरकम लगती है। आज मौजूद स्वास्थ्य सेवाएं इस से बहुत कम ही मेल खाती हैं। प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की हालत बेहद खराब है, २०,००० से ३०,००० लोगों के पीछे केवल एक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र है। किसी किसी राज्य में तो १,००,००० लोगों के पीछे एक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र है। इसके अलावा ग्रामीण अस्पताल तो चलने की हालत में ही नहीं हैं। जिला स्तर के अस्पतालों में औसतन ३००० बिस्तर हैं जबकि भोरे कमीशन में २४०० बिस्तरों वाले अस्पतालों की सिफारिश की गई थी। दूसरी ओर स्वास्थ्य सेवाओं के लिए सरकारी बजट बहुत ही कम रहा है। अपर्याप्त सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की जगह निजी स्वास्थ्य सेवाओं ने भरी है जिनका एकमात्र उद्देश्य मुनाफा कमाना है।
पृथ्वी में जीवन को चला पाने की असाधारण क्षमता है। हमें पता नहीं कि अन्य ग्रहों पर जीवन है या नहीं। पहले पृथ्वी पर भी जीवन नहीं था। जीवनहीन स्थिति से जीवन वाली स्थिति में पहुँचने में पृथ्वी को कई सौ करोड़ साल लगे। यह विभिन्न तत्वों जैसे वायु, पानी, गर्मी और बिजली की मदद से हुआ। जैविक पदार्थों का संयोजन शायद इन्हीं तत्वों के साथ सम्बन्ध से हुआ। एक और सिद्धान्त के अनुसार पृथ्वी पर सबसे पहले जीवन विश्व के बाहरी भागों से आया (जैसे कि उल्कापिण्डों के साथ बैक्टीरिया पृथ्वी पर आए)। पृथ्वी पर जीवन की शुरूआत चाहे किसी भी तरह से हुई हो, उसके बाद क्या हुआ इसके बारे में हमें काफी कुछ पता है। पिछली दो सदियों में वैज्ञानिकों ने इस बारे में बहुत अच्छी तरह समझ लिया है कि कम विकसित से अधिक विकसित प्राणी कैसे बने। चार्ल्स डारविन, जिनका नाम विकास के सिद्धान्त से जुड़ा हुआ है इस रहस्य पर से पर्दा हटाने वाले सबसे अग्रणी वैज्ञानिक थे। हमें आसपास जो भी जीव और वनस्पति समूह दिखाई देते हैं उनमें कोई संगती ढूँढ़ने वाले वे ही प्रथम वैज्ञानिक थे। डारविन के सिद्धान्त ने यह बताया कि जीवन सरल से जटिल रूप में धीरे-धीरे विकसित हुआ है। अन्य पेड़ पौधों और जीव जन्तुओं की तरह मनुष्य भी इसी प्रक्रिया से विकसित हुआ है। हममें और बन्दरों में जो समानता है वो कोई आकस्मिक नही है। प्रमाणों से यह साबित हो चुका है कि मुनष्य और बन्दर एक ही प्रभव से बने हैं। मनुष्य तुलनात्मक रूप से बाद में अस्तित्व में आया।
सबसे पहले एक कोशिका वाले जीव होते थे। विकास की प्रक्रिया वहीं से शुरू हुई। ये शुरूआती जीवन के रूप प्रोटीन बनने से अस्तित्व में आए। इन छोटे-छोटे जीवों से धीरे-धीरे पेड़ पौधे बने (जिनमें हरा रंजक होता है) और जानवर बने (जो पेड़ पौधों और जानवरों को खाते हैं)। ये दोनों तरह के जीव करोड़ों सालों में पानी और ज़मीन पर विकसित हुए। विविधता, अनुकूलन, गुणन, वंशगति और वरण विकास के औजार थे।
विविधता जीवन का बुनियादी सिद्धान्त है। किसी कुत्ते के पिल्लों को देखें। हर एक दूसरे से दिखने व व्यवहार में अलग होता है। परन्तु हर एक अपने मॉं बाप से किसी न किसी तरह से मिलता है। ऐसा वंशगति के कारण होता है। कुछ-कुछ गुण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में आते जाते हैं।
अनुकूलन वो तरीका है जिससे जीव अपने को आस पास के वातावरण के अनुसार ढालने की कोशिश करते हैं। इसी की बदौलत मच्छरों की नई किस्में डीडीटी से नहीं मरती। और पेड़ सबसे अधिक सूरज की रोशनी हासिल करने के लिए अपनी लम्बाई ज़्यादा कर लेते हैं।
प्राकृतिक वरण के द्वारा प्राणियों की कुछ किस्में ज़िन्दा रह पाती हैं इसके विपरीत जो जिन्दा रह पाने में कम सक्षम होती हैं, खतम हो जाती हैं। हमारे आसपास के सभी पेड़ पौधे और जीव जन्तु वही हैं जो विकास की प्रक्रिया में वरण द्वारा बच पाए हैं। परन्तु और बहुत सी जातियॉं खतम हो चुकी हैं। इनमें डायनासोर भी शामिल है।
विकास के द्वारा जीवन के बहुत से रूप खतम होते गए हैं और उतने ही नए अस्तित्व में आते गए हैं। कई सारी जाति लुप्त हो चुकी हैं। मानव जाति भी जो कि वातावरण को सबसे अच्छी तरह से बदल लेती है, विकास के बलों से बच नहीं पाती है।