फाइलेरिया रोग में अकसर हाथ या पैर बहुत ही ज़्यादा सूज जाते हैं। इसलिए इस रोग को हाथी पांव भी कहते हैं। पर फाइलेरिया रोग से पीड़ित हर व्यक्ति के हाथ या पैर नहीं सूजते। यह बीमारी पूर्वी भारत, मालाबार और महाराष्ट्र के पूर्वी इलाकों में बहुत अधिक फैली हुई है। यह कृमिवाली बीमारी है। यह कृमि लसिका तंत्र की नलियों में होते हैं और उन्हें बंद कर देते हैं। क्यूलैक्स मच्छर के काटने से बहुत छोटे आकार के कृमि शरीर में प्रवेश करते हैं। मलेरिया के कीड़ों की तरह यह कीड़े मनुष्यों और मच्छरों दोनों में छूत पैदा करते हैं पर इससे केवल मनुष्यों को ही परेशानी भुगतनी पड़ती है।
फिल पाव या फायलेरिया-इसमे लसिका तंत्र अवरुद्ध होकर सूजन |
मल नालियों और गड्ढों का गंदा पानी क्यूलैक्स मच्छर के मददगार होता है। इस मच्छर की पहचान है इसकी पीठ का कूबड़ और इसकी गूँज। इस मच्छर के लार्वे पानी में टेढ़े होकर तैरते रहते हैं। क्यूलैक्स मच्छर जब किसी व्यक्ति को काटता है तो वोफाइलेरिया के छोटे कृमि के लार्वे उसके अंदर पहुँचा देता है। ये छोटे कृमि मनुष्य के लसिका तंत्र में बड़े होकर पुरुष और मादा जीवों में बदल जाते हैं। इस कारण से लसिका नलियों में प्रज्वलन हो जाता है। जो हाथों और पैरों पर लाल धारियों के रुप में दिखाई देता है। ये वयस्क कृमि लसिका वाहिकाओं में समागम करके खूब सारे सूक्ष्म फाइलेरिया बनाते हैं। सूक्ष्म फाइलेरिया 2 से 3 साल तक जीवित रहते हैं और वयस्क कृमि करीब बारह सालों तक हमारे शरीर में रहते हैं।
ये सूक्ष्म फाइलेरिया कृमि खून में घूमते रहते हैं। ऐसा खासकर रात को होता है। क्यूलैक्स मच्छर जब खून चूसता है तो वो इन सूक्ष्म फाइलेरिया को अपने अंदर ले लेता है। और संक्रमण पैदा करने वाले लार्वा के रुप में इनका विकास 10 से 15 दिनों के अंदर होता है। इस अवस्था में मच्छर बीमारी पैदा करने वाला होता है। इस तरह यह चक्र चलता रहता है।
फाइलेरिया की छूत के बाद सूजन की बीमारी अलग अलग समय के अंतराल पर होती है। यह ध्यान रखना भी महत्वपूर्ण है कि किन्हीं लोगों में ये बीमारी पूरी जिंदगी सामने नहीं आती। पर ये लोग मच्छरों तक संक्रमण पहुँचा सकते हैं (इन्हें लक्षण हीन वाहक कहते हैं)। गंभीर छूत की स्थिति में, जब वयस्क परजीवी लसिका तंत्र में घुस गए होते हैं, गिल्टियॉं और बुखार हो जाता है।
कुछ रोगीयों में गिल्टियों और बुखार के अलावा एक या ज़्यादा हाथ व पैरों में (ज़्यादातर पैरों में) सूजन हो सकती है। अकसर पैरों व हाथों की लसिका वाहिकाएं लाल हो जाती हैं और उनमें दर्द भी होता है। इस स्थिति में लसिका नलियों के बंद हो जाने के कारण लसिका के इकट्ठे हो जाने के कारण सूजन हो जाती है। इस स्थिति में इसमें केवल द्रव ही होता है। अगली अवस्था में वसा के जम जाने के कारण शोफ कड़ा हो जाता है। एक बार यह बदलाव आ जाए तो यह फिर से ठीक नहीं होता।
इलाज बीमारी की शुरुआती अवस्था में ही शुरु हो जाना चाहिए। याद रखना चाहिए कि हाथों या पैरों की सूजन ठीक करने के लिए हमारे पास कोई भी दवाई नहीं है।
डाईइथाइल – कार्बामाज़ीन (DEC) फाइलेरिया की एक दवा है। इसे दो हफ्तों दिया जाना चाहिए। इस दवा से सिर में दर्द, मितली, उल्टी जैसी प्रतिक्रियाएं हो सकती हैं। कभी कभी इससे एलर्जी भी हो जाती है। आप इसके बारे में और अधिक दवाइयों वाले अध्याय में पढ़ सकते हैं।
फायलेरिया जॉंच के लिये खून का नमूना रात में लेना पडता है |
इस बीमारी कृमि के कई एक वाहक इलाज के लिए नहीं पहुँचते। इसलिए संक्रमणग्रस्त इलाकों में सभी की जांच ज़रूरी है। ऐसा न होने पर बीमारी फैलती जाती है। जिन क्षेत्रों में फाइलेरिया की समस्या हो वहॉं खास सर्वे किए जाने ज़रूरी होते हैं। फाइलेरिया के नियंत्रण के लिए रात को खून के आलेप के नमूने इकट्ठे करना, रोकथाम के लिये दवा प्रयोग और बीएचसी छिडकाकर मच्छरों पर नियंत्रण करना जैसे कदम उठाना ज़रूरी है। जिन क्षेत्रों में फाइलेरिया की बीमारी ज़्यादा होती है वहॉं नमक में DEC दवा मिलाना ठीक रहता है। इससे यह सुनिश्चित हो जाता है कि हर व्यक्ति को यह दवा मिल जाए (कम मात्रा में) और इससे सूक्ष्म फाइलेरिया कृमि को मारा जा सकता
ये सूक्ष्म फाइलेरिया कृमि खून में घूमते रहते हैं। ऐसा खासकर रात को होता है। क्यूलैक्स मच्छर जब खून चूसता है तो वो इन सूक्ष्म फाइलेरिया को अपने अंदर ले लेता है। और संक्रमण पैदा करने वाले लार्वा के रुप में इनका विकास 10 से 15 दिनों के अंदर होता है। इस अवस्था में मच्छर बीमारी पैदा करने वाला होता है। इस तरह यह चक्र चलता रहता है।