कुछ और वायरस से होने वाली बीमारियॉं खसरे के हल्के हमले जैसी होती हैं। खसरे के टीके से इन बीमारियों से बचाव नहीं होता। इसलिए अगर बच्चे को ऐसी कोई बीमारी हो जाए तो खसरे के टीके के असरकारी होने के बारे में शक नहीं करिए। इन बीमारियों में कोई जटिलताएं नहीं होतीं। पैरासिटेमॉल से बुखार का इलाज किया जा सकता है।
होम्योपैथिक उपचार भी अपनाया जा सकता है। आरसेनिकम, बैलाडोना, ब्रायोनिआ, फैरम फॉस, कामोमिला, ड्रोसेरा, मरकरी सोल, पल्सेटिला, रूस टॉक्स, सिलीसिआ, स्ट्रेमोनिअम, सल्फर आदि में से दवा चुनें। टिशु रेमेडी के लिए काल फॉस, फैरम फॉस, काली मूर, काली सुल्फ या सिलिका में से दवा चुन सकते हैं।
यह एक हल्की बीमारी है। इसमें भी बुुखार और चकत्ते होते हैं और इस तरह से यह खसरे से मिलती जुलती है। यह भी वायरस सेे होने वाला संक्रमण है। यह संक्रमण 5 से 9 साल के बीच के बच्चों को होता है। चकत्ते होने के पहले और बाद के हफ्तों में यह बीमारी संक्रामक होती है। एक बार छूत होने से ज़िदगी भर के लिए प्रतिरक्षा पैदा हो जाती है।
संक्रमण के 2 से 3 हफ्तों बाद ही लक्षण दिखाई देने शुरु होते हैं। सबसे पहले आम जुकाम होता है। कभी कभी चकत्ते ठीक से नहीं उभरते। कभी कभी ये केवल 1 से 2 दिनों तक ही रहते हैं। रूबैला के चकत्ते चेहरे, छाती और पेट पर होते हैं। एक आम लक्षण है गर्दन पर गांठें होना, ये गांठें चकत्ते होने के एक हफ्ते के अंदर होती हैं। ये गाठें चकत्ते ठीक होने के बाद 2 से 3 हफ्तों तक रह सकती हैं। गर्दन और कानोंं के पीछे की लसिका ग्रंथियॉं भी इनसे प्रभावित हो सकती हैं। कभी कभी हड्डियों और तंत्रिकाओं में दर्द भी होता है।
गर्भवती महिलाओं में रूबैल काफी खतरनाक होता है। वायरस नाड़ के द्वारा शिशु को नुकसान पहुँचा सकता है। जन्मजात शिशु को मोतियाबिंद, दिल की बीमारियॉं, बहरापन, दृष्टिपटल की बीमारियॉं, खून बहने की प्रवृति, सबलवाय, मानसिक विकास में कम, हड्डियों में गड़बड़ियॉं औश्र तंत्रिका तंत्र में गड़बड़ियॉं आदि जटिलताएं संभव हैं। इसलिए गर्भवती महिलाओं को रूबैला से बचाना बहुत ज़रूरी होता है। अगर किसी गर्भवती महिला को यह संक्रमण हो जाए तो उसे गर्भपात की सलाह दी जानी चाहिए। लेकिन अच्छा होगा की हरेक बच्चे को एम.एम.आर. का टीका लगे|
एम. एम. आर. टीके से रूबैला से बचाव के लिए एक अव्यव भी डाला जाता है। पर यह मंहंगा होता है और अभी तक मॉं बच्चा स्वास्थ्य कार्यक्रम का हिस्सा नहीं बन पाया है।
छोटी माता भी एक वायरस से होने वाली बीमारी है जो आमतौर पर बच्चों को ही होती है। एक बार बीमारी होने से पैदा हुई प्रतिरक्षा जीवन भर रहती है। हाल में इसके लिए टीका भी बनने लगा है। बचपन में छोटी माता से कोई भी खराब असर नहीं होता और यह खसरे के मुकाबले कम परेशान करने वाला संक्रमण है।
अगर बचपन में छोटी माता न हो तो बड़ी उम्र में यह संक्रमण होने से काफी नुकसान हो सकता है। कभी कभी संक्रमण के बाद छोटी माता का वायरस तंत्रिकाओं की जड़ों में निष्क्रिय पड़ा रहता है। कभी कभी यह हर्पीज़ ज़ोस्टर के रूप में उभर आता है। यह त्वचा के ऊपर तंत्रिकाओं की जड़ों पर एक श्रंखला के रूप में उभरता है।
छोटी माता का संक्रमण हवा में मौजूद एक वायरस से होता है। वायरस के शरीर में घुसने के दो हफ्तों बाद ही लक्षण उभरने शुरु होते हैं। बीमारी ठंड लगने और कंपकंपी आने से शुरु होती है जो कि 2 से 3 दिनों तक चलता है। बुखार के कम होने के बाद चकत्ते उभरते हैं। ये चकत्ते चेहरे या हाथ पैर की तुलना में छाती और पेट पर ज़्यादा होते हैं। ये दाने या चकत्ते 2 से 4 दिनों के अंदर अंदर झुंडों में निकलते हैं। शुरु में ये लाल रंग के होते हैं और फिर पीप से भर जाते हैं।
4 से 5 दिनों के अंदर अंदर निरोगण शुरु हो जाता है। दाने सूख जाते हैं उन पर पपड़ी जम जाती है और निशान भी पूरी तरह से मिट जाता है। पपड़ी जमने की स्थिति तक आते आते संक्रमण लगभग ठीक हो चुका होता है और इस स्थिति तक यह असंक्रामक भी होता है। बहुत ही कभी कभी छोटी माता से निमोनिया और मस्तिष्क शोथ हो जाते हैं। ऐसा उन बच्चों में होता है जिनका प्रतिरक्षा तंत्र कमज़ोर हो।
ज़्यादातर मामलों में पैरासिटेमॉल ही काफी होती है। परन्तु एसायक्लोवीर से छोटी माता और हर्पीज़ बहुत जल्दी ठीक हो जाते हैं। यह उन बच्चों में उपयोगी है जिनकी प्रतिरक्षा क्षमता कमज़ोर हो। 40 से 50 मिली ग्राम दवा दिन में 4 से 5 बार, पॉंच भागों में बांट कर 7 दिनों तक दी जानी चाहिए। इलाज काफी मंहंगा होता है। परन्तु इससे बहुत तेज़ी से फायदा होता है क्योंकि चकत्ते एकदम से ठीक हो जाते हैं। भारत में अब छोटी माता का टीका उपलब्ध है पर यह बहुत मंहंगा होता है। इलाज में पोषण में सुधार, बाहर से कैल्शियम लोहा आदि देना शामिल होते हैं। अगर दो साल की उम्र के बाद भी पीका चलता रहे तो डॉक्टर को दिखाएं। तब यह इन्जैक्शनों से ठीक हो सकता है।
पीका मिट्टी खाने की इच्छा को कहते हैं। दीवारों की सफेदी, राख, चूना और चॉक आदि खाने की इच्छा भी होती है। पीका लोहे की कमी, कैलशियम या ज़िंक की कमी, कुपोषण या कभी कभी मानसिक आभाव के कारण होता है। पेट में कीड़े होना भी पीका का एक कारण हो सकता है। पीका 6 से 7 महीनों की उम्र में होता है और दो साल तक चल सकता है। गर्भवती महिलाओं को भी ऐसी इच्छा हो सकती है। पीका खुद कीड़ों के संक्रमण का ज़रिया होता है।