कोलाईटिस बड़ी आँत के शोथ को कहते हैं। यह अक्सर आँत की दीवारों की चिरकारी अमीबा की संक्रमण के कारण होती है। कोलाईटिस की बीमारी अक्सर लगातार रहने वाले तनाव से जुड़ी होती है। आँत की जॉंच के लिए एण्डोस्कोपी की मदद ली जाती है और इस तरह निदान किए जाने के बाद ही सही इलाज तय किया जा सकता है।
ज़्यादातर डॉक्टर इसके इलाज के लिए मैट्रोनिडाज़ोल या टिनिडाज़ोल दवा का इस्तेमाल करते हैं। ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि इसका कारण अधिकतर अमीबा होते हैं। आयुर्वेदानुसार कुटज से बनी हुई दवा अक्सर फायदेमन्द होती है। खासकर पीने वाली दवा यानि कुटज -अरिष्टा। तीन चार हफ्तों तक इसका सेवन उन रोगियों को भी फायदा पहुँचाता है जिन्हें मैट्रानिडाजोल से फायदा नहीं होता।
लीवर के ठीक नीचे एक छोटी सी थैली होती है। इस थैली को पित्ताशय कहते हैं। इसमें लीवर की कोशिकाओं द्वारा स्रावित पित्त इकट्ठा होता है। यहॉं से पित्त, पित्तनलियों क्षरा छोटी आँत तक पहुँचता है। वहॉं ये खाना पचाने में मदद करता है।
पित्ता की पथरी पेशाब की पथरी की तुलना में कम आम है। पित्त की पथरी पुरूषों की तुलना में महिलाओं में ज़्यादा होते हैं।खासकर अधेड़ उम्र में। गाल ब्लैडर में पित्ता की पथरी का कई महीनों या सालों तक पता नहीं चल पाता। इनका पता तब चलता है जब या तो ये पित्त का बहना रोक देने हैं जिससे पीलिया हो जाता है या फिर थैली में शोथ हो जाता है। (इसे कोलीसिस्टाईटिस कहते हैं।)
पित्त की पथरी का दर्द लीवर(जिगर) के क्षेत्र से शुरू होता है यानि पेट के ऊपरी सीधे हाथ के दाहिने कोने के भाग से। यह रह-रहकर उठता है और सहन करना मुश्किल होता है। अक्सर ऐसे में उल्टियॉं भी आती हैं। पित्त के बहाव के पूरी तरह रूक जाने से पाखाना सफेद हो जाता है। पित्ताशय के पास की जगह दबाने से दर्द होता है। पर ऐसा कोलीसिस्टाईटिस दर्द यानि पित्ताशय के शोथ में भी होता है।
निदान व उपचार दोनों के लिए ही अस्पताल जाने की ज़रूरत होती है। इसलिए रोगी को तुरन्त अस्पताल भेजना चाहिए। अल्ट्रासोनोग्राफी से ठीक-ठीक पता पड़ पाता है कि पथरी है या नहीं। एक्स-रे से भी कई बार पथरी का पता नहीं चल पाता है। पैंटाज़ोसीन के इन्जेक्शन से थोड़ी देर के लिए दर्द से आराम मिल जाता है। परन्तु इसका इलाज ऑपरेशन द्वारा पथरी निकाल देना ही है।
कोलीसिस्टाईटिस पित्ताशय का एक शोथ है। यह या तो पथरी के कारण हो सकता है या फिर किसी अन्य संक्रमण के कारण। कभी यह बहुत गम्भीर समस्या होती है और कभी चिरकारी। जब यह गम्भीर होती है तो इसमें गाल ब्लैडर की जगह पर तेज दर्द टैंडरनेस, तेज बुखार और उल्टियॉं होती हैं। तुरन्त अस्पताल ले जाना ज़रूरी होता है। इस बीमारी में आमतौर पर गहन प्रतिजीवाणु दवाओं के इलाज से आराम हो जाता है।
कार्यरत ऊतकों की जगह जब कुछ निषक्रिय स्थायी रेशे से स्थान लेते हैं तो इस स्थिति को सिरोसिस कहते हैं। यह कुछ ऐसे ही होते हैं जैसे कि ठीक हो रहे किसी ज़ख्म की जगह कोई निशान बन जाना। ये कड़े रेशेदार ऊतक वैसे काम नहीं कर सकते जैसे कि लीवर (जिगर) की कोशिकाएँ करते है। इस कारण से इनके बनने से लीवर के काम करने की क्षमता घट जाती है। जैसे-जैसे और और रेशे कोशिकाओं का स्थान लेते जाते हैं वैसे वैसे लीवर के काम करने में गिरावट आती जाती है।
इसका सबसे आम कारण संक्रमित हैपेटाइटिस है। खासकर बी प्रकार की हैपेटाइटिस। लगातार खूब शराब पीना भी लीवर सिरोसिस का एक और आम कारण है। एक और तरह का सिरोसिस बच्चों में हो जाता है इसे भारतीय बाल सिरोसिस कहते हैं यह पीतल के बर्तनों के इस्तेमाल से जुड़ा है यानि यह धातु से होने वाली विषाक्तता है। लीवर सिरोसिस में धीरे-धीरे मौत हो जाती है। एक बार हो जाने पर यह ठीक नहीं हो सकती। सिर्फ इसके होने से बचा जा सकता है। साफ पानी पीने, हैपेटाईटिस बी को फैलने से रोकने, शराब न पीने व कॉंसे के बर्तनों को इस्तेमाल न करने से इससे बचा जा सकता है।
रोगी को अस्पताल भेजना ज़रूरी है। क्योंकि बीमारी लाइलाज है। ऐसे में जो भी चिकित्सीय मदद दी जाती है उससे बीमारी का इलाज नहीं होता, बस रोगी को थोड़ा कष्ट से थोड़ा आराम दिलवाया जा सकता है। जलोदर में अन्दर से द्रव निकाला जाता है पर इसका भी खास फायदा नहीं होता क्योंकि कुछ ही दिनों में द्रव फिर जमा हो जाता है।