भारत में स्वास्थ्य सेवाओं का विकास बहुत ही असमान रहा है। शहरी लोगों पर ज़्यादा ध्यान दिया गया है और गॉंवों को नज़रअंदाज़ किया गया है। इसके अलावा, गॉंवों में स्वास्थ्य सेवाओं की समस्या के कई पहलू हैं। ज़्यादातर देशों में स्वास्थ्य सेवाएं सरकार द्वारा उपलब्ध करवाई जाती हैं परन्तु भारत में इसका बहुत बड़ा हिस्सा निजी क्षेत्र द्वारा मिलता है।
सार्वजनिक क्षेत्र में मुख्यत: बचाव संबंधी सेवाओं जैसे टीकाकरण का काम होता है। वैसे भी सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं काफी सीमित हैं। लोग मंहंगी निजी स्वास्थ्य सेवाओं पर निर्भर रहने को मजबूर हैं। इसके अलावा निजी क्षेत्र नियंत्रित नहीं है। इलाज ढंग का नहीं होता और उसके लिए बहुत ज़्यादा पैसा वसूला जाता है। अकसर बिना ज़रूरत के दवाएं दे दी जाती हैं। जब शुरूआत में स्वास्थ्य सेवाओं का विचार सामने आया था तो यह लोगों की ज़रूरतों के प्रति संवेदनशील था। भोरे कमीटी (१९४८) ने बहुत विस्तृत सुझाव दिए थे जिन्हें भारत सरकार ने मान भी लिया था। पर इन्हें कभी भी पूरी तरह से लागू नहीं किया गया। इनमें से कुछ महत्वपूर्ण सुझाव ये थे –
आज की स्थिति में भोर कमीटी की रिपोर्ट बहुत ही भारीभरकम लगती है। आज मौजूद स्वास्थ्य सेवाएं इस से बहुत कम ही मेल खाती हैं। प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की हालत बेहद खराब है, २०,००० से ३०,००० लोगों के पीछे केवल एक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र है। किसी किसी राज्य में तो १,००,००० लोगों के पीछे एक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र है। इसके अलावा ग्रामीण अस्पताल तो चलने की हालत में ही नहीं हैं। जिला स्तर के अस्पतालों में औसतन ३००० बिस्तर हैं जबकि भोरे कमीशन में २४०० बिस्तरों वाले अस्पतालों की सिफारिश की गई थी। दूसरी ओर स्वास्थ्य सेवाओं के लिए सरकारी बजट बहुत ही कम रहा है। अपर्याप्त सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की जगह निजी स्वास्थ्य सेवाओं ने भरी है जिनका एकमात्र उद्देश्य मुनाफा कमाना है।
ग्रामीण इलाकों में रह रहे लोगों पर स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव का सबसे बुरा असर पड़ा है। चिकित्सा और स्वास्थ्य के पुराने और पारंपरिक तरीकों को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ किया गया है जबकि ये आसानी से प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं के साथ जोड़ी जा सकती थीं। इलाज और स्वास्थ्य के पारंपरिक तरीकों को ध्यान से आगे बढ़ाना चाहिए, जैसा कि चीन में किया गया है। पुराने इलाज आमतौर पर स्थानीय जडिबूटियोंसे मिल जाते हैं। इसलिए उतने मंहंगी भी नहीं होतीं। इन तरीकों में लोगों के सांसकृतिक विश्वासों को भी महत्व दिया जाता है।
दूसरी ओर, ग्रामीण क्षेत्रों में ज़्यादातर होम्योपैथी या आयुर्वेद में प्रशिक्षित निजी डॉक्टर होते हैं। पर ये लोग बिना पूरी जानकरी के ऐलोपैथिक दवाएं देते हैं। साथ ही निजी स्वास्थ्य सेवाएं मंहंगी हैं। एक बीमार व्यक्ति काम नहीं कर पाता इसलिये परिवार की आमदनी घटती है। ऐसे में मंहंगे इलाज से बोझ और बढ़ जाता है। दूर दराज में स्वास्थ्य केन्द्र तक जाने में किराया आदि भी खर्च होता है। दूसरी ओर होम्योपैथी या आयुर्वेद आधुनिक इलाज (ऐलोपैथी) से सस्ते होते हैं, परन्तु गॉंवों में मौजूद स्वास्थ्यकर्मी उनका बहुत ही कम इस्तेमाल करते हैं।