पुरुष प्रजनन के अंग शिश्नश और वृषण में दो अंडकोश |
पुरुष जननेन्द्रियों में होने वाली बिमारीयॉ बहुत है और इनका इलाज भी संभव है। परन्तु गुप्त रोगों से जुड़े डर, बदनामी और शर्म के कारण से कई पुरुष इनका इलाज करवाने से बचते हैं। इसके अलावा ज्यादातर चिकित्सकों के पास इन रोगियों के इलाज के लिए पर्याप्त साधन व जानकारी भी उपलब्ध नहीं होती। जननेन्द्रियों की बीमारियों के बारे में कुछ बुनियादी जानकारी और इन्हें गुप्त रखे जाने का वादा यौन रोगों (एस.टी.डी.) को नियंत्रित करने के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है।
पुरुष प्रजनन अंग और उसके कार्यपुरुष जननेन्द्रियों तंत्र में बाहरी और आंतरिक में कई अंग होते हैं। इनमें से दो दिखाई देते हैं _ वृषण, शुक्राशय थैली और शिश्न (लिंग)। ये अंग वाहिका नली (शुक्रवाहिका नली) से जुड़े होते हैं। तंत्र के पौरूष ग्रंथी और मुत्रनली अंग शरीर के अन्दर होते हैं।
पुरुष प्रजनन तंत्र के अंग बाये ओर से छेदचित्र |
पुरूष के शरीर में शुक्राशय थैली, वृषण,( बीज कोष) को घेरे रहती है अर्थात शुक्राशय थैली, शुक्राशय की रक्षा करती है।
पुरूष के शरीर के इस प्रजनन अंग को बीज कोष भी कहा जाता है । यह दो छोटी ग्रंथीयॉ है। वृषणथैली के अन्दर स्थित वृषण शरीर के सबसे ठण्डे अंग हैं। वृषण उदर के बाहर होते हैं ताकि शुक्राणु उदरीय गर्मी से बचकर जीवित रहे सकें।
दोनों वृषणों का प्रमुख काम शुक्राणुओं और पुरुष हारमोनों टेस्टोस्टिारान नामक अंतस्त्राव का उत्पादन करना होता है। दोनों वृषणों में बड़ी संख्या (50 करोड प्रतिदिन) में शुक्राणुओ का उत्पादन होता है। एक बार में बाहर आए वीर्य (दो से तीन मि.ली.) में लाखों शुक्राणु होते हैं।
औरतों में रजोनिवृत्ति के बाद अण्डाशय अण्डे बनाना बन्द कर देते हैं परन्तु इसके विपरीत पुरुषों में वृषण जीवन के अन्त तक शुक्राणु बनाते रहते हैं।
पुरुष हारमोन, मुख्यत: एनड्रोजेन और टेस्टोस्टेरोन _ शरीर में कई सारे यौन संबंधी बदलावों के लिए ज़िम्मेदार होते हैं। मांसपेशिय वृध्दि और कदकाठी, पुरुषों में जगह-जगह बालों का उगना, पुरुषों की आवाज़, काम इच्छा और शुक्राणुओं का उत्पादन सभी सीधे-सीधे पुरुष हारमोनों द्वारा ही नियंत्रित होते हैं।
वृषण भ्रूणीय ज़िन्दगी की शुरू-शुरू की अवस्था में ही बन जाते हैं। भ्रूण में ये उदर में बनते हैं। कभी-कभी एक या दोनों वृषण पूरी तरह उदर में नहीं खिसकते। जन्म के तुरन्त बाद इसका इलाज किया जाना ज़रूरी है क्योंकि उदरीय गर्मी या उपस्थ (पेट और जाँघों के बीच का हिस्सा) में चोट के कारण वृषण काम करना बन्द कर सकते हैं।
शुक्रपेशी |
वृषण अरबों शुक्राणु बनाते हैं। ये शुक्राणु कुछ समय के लिए दोनों वृषणों के पीछे एक कोश (अधिवृषण) में रहते हैं। यहाँ से शुक्रवाहिका नामक एक नली उन्हें शुक्रकोश में ले जाती है। शुक्रवाहिका को हम दोनों वृषणों को उदर से जोड़ने वाली तंत्रिकाओं और शुक्र वाहिकाओं के बण्डल में मोटे और सख्त रज्ज़ु के रूप में महसूस कर सकते हैं।
शुक्राणु लिए हुए वाहिका, मूत्रमार्ग के पुरस्थ हिस्से के पास शुक्र पुटिकाओं में घुसती है। शुक्र कोश एक श्लेष्मी द्रव स्त्रावित करते है। इसके साथ शुक्राणु वीर्य बनाते हैं जो कि यौन सम्बन्ध के समय में एकाएक ज़ोर से बाहर निकल आता है। कोशों की अनैच्छिक पेशियाँ वीर्य फेंकने में मदद करतीं हैं। मूत्रमार्ग में आ जाने के बाद वीर्य लिंग के रास्ते बाहर निकल आता है।
शिश्न एक अत्यधिक पेशीय, अत्यधिक वाहिकामय और संवेदनशील अंग है (क्योंकि इसमें खूब सारी तंत्रिकाएँ और खूब सारा खून होता है)। मूत्रमार्ग पेशाब और वीर्य दोनों ले जाता है हालाँकि अलग-अलग समय पर। शिश्न और इसके सिरे की पेशियाँ इसको खड़ा करने में मदद करती है। यौन क्रिया के दौरान शिश्न फैल जाता है। ऐसा इसकी स्पंजी/छिद्रमय थैलियों में खूब सारा खून आ जाने के कारण होता है। ये थैलियाँ मूत्रमार्ग के दोनों ओर होती है। और शिश्न के सिरे में स्थित पेशिय छल्लों के कारण वीर्यपान समय तक खून इन्हीं में रहता है। खड़े हुए लिंग का कोण भी पेशिय क्रिया के कारण ही होता है।
यौन क्रिया के बाद, ये स्पंजी थैलियाँ ज्यादा खून से खाली हो जातीं हैं और पेशियाँ भी शिथिल होकर अपना सामान्य आकार और नाप धारण कर लेती हैं। यौन क्रिया की क्रियाविधि जनेनन्द्रियों, पुरुष हारमोनों और दिमाग की एक अत्यधिक साझी प्रक्रिया है।
शिश्नमल अक्सर अस्वच्छ शिश्नमुंड के ऊपर जमा हुआ दिखाई देता है। यह कुछ सफेदी लिए हुए सलेटी रंग का होता है और इसमें कुछ बैक्टीरिया होते हैं। क्रोनिक शिश्नमल चिरकारी (बार-बार लगातार) की उपस्थिति शिश्न के कैंसर से जुड़ी हुई है। जिन रोगियों को निरुध्दप्रकाश (फाईमोसिस) हो उनमें इससे बार-बार संक्रमण होता है। स्वास्थ्य कार्यकर्ता को लोगों को शिश्न पर से शिश्नमल हटाकर उसे साफ रखने के बारे में जानकारी देनी चाहिए।
पुरस्थ ग्रन्थि, मूत्राशय की तली में होती है। पुरस्थ मूत्रमार्ग में से होकर गुज़रता है। पुरस्थ के स्त्राव वीर्य में शामिल हो जाते हैं। पुरस्थ ग्रन्थि एक चिपचिपा द्रव स्त्रावित करती है जो आमतौर पर यौन क्रिया के शुरु में निकलता है और चिकनाई प्रदान करने का काम करता है। इस ग्रन्थि की उपस्थिति अक्सर बड़ी उम्र में महसूस होती है जब ये सख्त हो जाती है। यह क्योंकि मूत्रमार्ग के सिरे पर होती है इसलिए इसमें सूजन आ जाने पर मूत्रमार्ग संकरा हो जाता है और इससे पेशाब करने में मुश्किल होती है। पुरस्थ ग्रन्थियों में कैंसर होने का खतरा होता है अत: बड़ी उम्र में इसकी जाँच नियमित रूप से की जानी ज़रूरी है।