लाठी का मुख्य उपयोग गिरने से बचना है |
एक उपनिषद में कहा गया है, सौ साल तक जीना व काम करना चाहते हैं, इससे बड़ी मुक्ति कोई नहीं हो सकती है। ज़ाहिर है इसमें अच्छा स्वास्थ्य, लंबी उम्र और सामाजिक रूप से उपयोगी ज़िंदगी शामिल है। यह फलसफा काफी सकारात्मक है। इससे हमें यह बढ़ावा मिलता है कि हम बुढ़ापे को जीवन के स्वाभाविक हिस्से के रूप में देखें न कि एक बीमारी या समस्या के रूप में। आधुनिक चिकित्सा से उम्र बढ़ गई है और बुढ़ापे का स्वास्थ्य भी बेहतर हो गया है। जीवन और दुनिया के प्रति सही रुख, सही ढंग से अपनी देखभाल से सौ साल तक सार्थक ज़िंदगी जी पाना असंभव नहीं रह गया है।
प्राचीन हिन्दु धर्म में अनुशासित जीवन के नियम मिलते हैं। इसके अनुसार जीवन के चार आश्रम समझे गये है। पहले २५ साल शक्ति, स्वास्थ्य, कौशल और ज्ञान हासिल करने में और ब्रह्मचर्य (ज्ञानसाधना याने स्नातक स्थिती) का पालन करने में बिताने चाहिए। अगले २५ साल घर और परिवार बनाने में लगाने चाहिए।
अगले २५ साल परिवार से आगे जाकर विरक्त होकर बृहद सामाजिक कार्य में लगाने चाहिए। उससे अगले २५ सालों में मोह, स्वार्थ और भौतिक चीज़ें त्याग कर अपने को समझने में लगाने चाहिए। यह चार आश्रमों की व्यवस्था है। आश्रम का मतलब रहने की जगह होता है।
इस व्यवस्था में जीवन के प्रति रुख में बदलाव सुझाया गया है। यह सच्चाई अभी भी सही है और इसकी काफी अधिक सामाजिक उपयोगिता है। दुर्भाग्य से नौकरी से अवकाश प्राप्त करने की उम्र ६० साल की होने के कारण, लोकबाग अकसर ऐसा सोचने लगते हैं कि वे इस उम्र के बाद काम करने लायक नहीं रहते। असल में वे इसके बाद भी १० से १५ साल बड़े आराम से समाज के लिए सार्थक योगदान देने में लगा सकते हैं। जीवन के चार आश्रमों के संदर्भ में अवकाश प्राप्त करने का अर्थ केवल जीवन के प्रति रुख के बदलने का, विरक्ती के साथ समाजिक काम करने का होना चाहिए। आखरी आश्रम या पड़ाव भी इस समय के अनुपात में होना चाहिए।
भजन अर्चन में बुढों का समय आनंद के साथ गुजरता है |
जैविक वयोवृद्धि अंगों के ह्नास, ऊतकों के सूखने और काम करने की क्षमता के कम होने को कहते हैं। मानसिक रूप से इसका अर्थ है बहुत से बदलाव होना, सकारात्मक और असकारात्मक – जैसे अवकाश प्राप्ती, अकेलापन, असहायता, चिड़चिड़ापन, असहनशीलता, निस्वार्थ, दयालुता आदि। मुख्य बदलाव व्यक्ति और परिस्थितियों पर निर्भर करते हैं। परिवार के सहयोग व देखभाल से बहुत फर्क पड़ता है। वयोवृद्धि को रोका नहीं जा सकता परन्तु इसे कुछ हदतक टाला जा सकता है।वयोवृद्धि और अक्षमता को दूर भगाने के लिए रहन सहन के सही तरीके और रुख ज़रूरी होते हैं।
अपनी सही देखभाल में खाने, शारीरिक कार्यकलापों, सोने में अनुशासन और सही स्वास्थ्य देखभाल शामिल होते हैं। थोडे़ बहुत शारीरिक और सामाजिक कार्यकलाप करते रहना ज़रूरी है। साथ के लोगों का सहारा ज़रूरी होता है। धार्मिक क्रियाकलापों से भी सहारा मिलता है।
दादा दादी, नाना नानी को पोती पोतों से भी काफी खुशी मिलती है और समय व्यतीत करने का साधन भी। शहरों में संयुक्त परिवारों के खतम होने और पड़ौस के अभाव ने बूढ़े लोगों का जीवन मुश्किल बना दिया है। गॉंवों में संयुक्त परिवारों के होने के कारण ऐसे सहारे अभी भी मौजूद हैं।
वृद्धाश्रम आज की सामाजिक जरुरत है |
बड़े शहरों की जिंदगी में बूढ़े लोग वृद्धाश्रम बने घरों में रहने के लिए मजबूर हो रहे हैं। समाज में ऐसे संस्थानों की ज़रूरत है, परन्तु इससे भी ज़्यादा ज़रूरी है कि हम अपने घरों में बूढ़ों के लिए जगह बनाएं।