blood-lymph रक्त-लसिका
प्लेग

प्लेग भारत समेत कई देशों में से पूरी तरह से खतम हो गया था। परन्तु 1994 में कुछ समय के लिए गुजरात और महाराष्ट्र में फिर से इसके मामले सामने आए। इस बारे में काफी संदेह है कि यह प्लेग था या कोई ओर बिमारी। प्लेग ऐसी बीमारी है जो अल्प समय में कई सारे देशों में एक साथ फैल सकती है। इसलिए इस बीमारी के बारे में बुनियादी जानकारी हासिल होना ज़रूरी है।

प्लेग का इतिहास काफी भयंकर रहा है। वृद्ध लोगों को भारत में 1918 तक फैली प्लेग की भयानक महामारी की यादे अभी तक भूला
नही पाये है। सिर्फ भारत में ही इस महामारी से लाखों लोग मारे गए थे। आखिर बार भारत में इस रोग का मामला 1995 में प्रकाश में आया था। इसके बाद बीमारी/महामारी तो नही हुईपर उसकी यादें बडे-बूढों में अभी भी ज़िंदा हैं।

कारण और फैलाव

चूहों की पिस्सु द्वारा अपने साथ ले जा रहे बैक्टीरिया से प्लेग फैलता है। ये पिस्सु जबचूहों को काटते हैं तो उनका खून चूस लेते हैं। इससे बैक्टीरिया का जीवन चक्र चूहों के अंदर चलता रहता है। क्योंकि चूहे और मनुष्यों की रहवास आसपास ही है रहने की जगहों पर भोजन के कारण से जुड़े रहते हैं इसलिए ये जूंए कभी कभी मनुष्यों को भी काट लेते हैं। इससे यह संक्रमण मनुष्यों तक फैल जाता है।

जंगल की बीमारी

यह बीमारी जंगलों के कई तरह के कुतरने वाले जीवों में स्थाई रूप से होती है (वन्य प्लेग)। कभी कभी प्लेग मनुष्यों के समुदायों में भी घुस जाता है। हमें अभी तक नहीं मालूम कि जंगल का प्लेग किस तरह से मानव समुदाय में संक्रमण का कारण बन जाता है।

यह बीमारी अस्वच्छता से संबंधित बीमारी है। जब गरीबी में रह रहे लोगों के रहने के हालातों और गंदगी के कारण चूहे और कुतरने वाले अन्य जीव इनके संपर्क में आते हैं तो इससे प्लेग फैल जाता है। जब तक यह हालात रहते हैं, प्लेग कभी भी हमला कर सकता है।

रोग विज्ञान

ग्रंथिल प्लेग पिस्सु काटने के 1 से 12 दिनों के अंदर (औसतन 2 से 4 दिनों में) छूत की बीमारी में बदल जाता है। संक्रमण शरीर में सबसे पहले लसिका ग्रंथियों में बढ़ती है जहॉं काटे हुए स्थान से लिंफ (लसिका/रस) बह कर आ जाता है। इन ग्रंथियों के स्थान पर शोथ (सूजन और लालपन) हो जाता है और यहॉं से रोगाणु रक्त में चले जाते हैंऔर रक्त से ये फिर अन्य अंगों जैसे आंतों, दिल और मस्तिक को प्रभावित करते हैं। इस प्रकार के प्लेग को ग्रंथिल प्लेग कहते हैं।

फुप्फुसी प्लेग ग्रंथिल प्लेग में बैक्टीरिया रोगाणु शरीर के कई अंगों में रकत के माध्यम फैल जाते हैं। इनमें फेफड़े भी शामिल हैं। फेफड़ों में पहुँचने के बाद ये बैक्टीरिया क्षीक से हवा में और फिर सॅास भरने की प्रकिया में दूसरे लोगों तक भी पहुँच सकते हैं। इसलिए दूसरे व्यक्ति को सीधे संचरण से फुप्फुसी प्लेग हो जाता है। यह एक अन्य तरह का प्लेग है जो बूंदों से फैलता है। इससे फेफड़ों पर असर पड़ता है जिससे निमोनिया हो जाता है। यह काफी तेज़ी से फैलने वाली बीमारी है और इससे अकसर मौत हो जाती है।

लक्षण

बुखार और बगलों और वंक्षणों में गिल्टियॉं ग्रंथिल प्लेग के महत्वपूर्ण लक्षण हैं। इसके अलावा अन्य लक्षण हैं सिर में दर्द, काम में मन न लगना, ठंड लगने के साथ तेज़ बुखार। बुखार 2 से 5 दिनों तक काफी तेज़ रहता है और फिर अचानक कम हो जाता है। गिल्टियॉं में मवाद के कारण से सूजन हो जाती हैं और बुखार फिर बढ़ने लगता है। कभी कभी दिमागी पर भी असर हो जाता है, उलझन व घबराहट होती है, चलने में लड़खड़ाहट होती है और पेशियों में कॅंपकॅंपाहट होती है।

प्लेग में रक्त स्त्राव

जगह जगह से खून बहना खूनी प्लेग का बुनियादी लक्षण है। यह खून की वाहिकाओं में शोथ होने के कारण होता है। मौत रक्त स्त्राव के कारण ही होती है।

लिवर और तिल्ली बड़ी हो जाती हैं, उल्टी और पाखाने में खून आने लगता है, आँखें लाल हो जाती हैं, और त्वचा के अंदर भी रक्त स्त्राव होने लगता है। त्वचा में जगह जगह काले निशान बन जाते हैं। इसलिए इस बीमारी को काला बुखार भी कहते हैं। (यह काला बुखार (फालसीपेरम मलेरिया) से अलग है।

मौत कभी भी हो सकती है पर आमतौर पर यह बीमारी के पॉंचवें दिन होती है। मौत का कारण खून के बह जाने के कारण हिद्पात हो जाता है। ठीक से इलाज न होने से करीब 30 से 90 प्रतिशत लोगों की मौत हो जाती है।

फुप्फुसी प्लेग यह ऐसा दिखता है जैसे कि निमोनिया स्थाई रूप से हो गया हो। इसकी शुरुआत बुखार और बिना दर्द वाली खॉंसी से होती है। परन्तु इस खॉंसी में श्लेश्माभ स्त्राव भी निकलता है। बाद में छाती में भयंकर दर्द, सांस फूलने और बलगम में खून आने की शिकायत भी होने लगती है। फुप्फुसी प्लेग या तो सीधे ही हो सकता है या फिर यह ग्रंथिल प्लेग की आखरी अवस्था के रूप में भी हो सकता है। सांस या दिल के रुकने से मौत हो जाती है।

इलाज

प्लेग एक गंभीर बीमारी है। अगर इसका सही समय पर इलाज न हो तो इससे मौत हो जाना लगभग निश्चित होता है। विज्ञान के कारण बहुत सी प्रति जीवाणु दवाएं उपलब्ध हैं जिनसे इसका इलाज हो सकता है। सबसे अच्छी दवा है स्टे्रप्टोमाइसीन का इंजैक्शन, परन्तु टैट्रासाइक्लीन खिलाना भी उतना ही असरकारी है। जरुरत हो तब आप डॉक्टर का इंतज़ार करे बिना ही दवाई शुरु कर सकते हैं। ऐसा भी किया जा सकता है कि पहले टैट्रासाइक्लीन के इन्जैक्शन से शुरुआत की जाए और फिर खाने वाली दवा जारी रखी जाए। जिन क्षेत्रों में प्लेग होता हो वहॉं के स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को इन्जैक्शन देने का प्रशिक्षण ज़रूर दिया जाना चाहिए।

प्लेग नियंत्रण

दवाइयों के इस्तेमाल के अलावा प्लेग फैलने से रोकने के लिए रोगी को अलग कर के रखना ज़रूरी है।

चूहों और चूहों के जूंओं पर नियंत्रण

यह बीमारी क्योंकि कुतरने वाले जीव (चूहे) फैलाते हैं इसलिए बीमारी वाली जगह पर चूहों और अन्य कुतरने वाले जीवों पर नियंत्रण करना ज़रूरी होता है।
जूंओं को खतम करने के लिए बीएचसी कीटनाशक का छिड़काव भी एक महत्वपूर्ण कदम है।
चूहों के मरने की घटनाओं पर ध्यान दें। किसी भी बस्ती में बिना किसी वजह चूहों की मौत एक महत्वपूर्ण सूचना है। इसका अर्थ है कि चूहों में प्लेग फैला हुआ है। बिनावजह चूहों की मौत की किसी भी घटना की जानकारी स्वास्थ्य केन्द्र में या सरकारी कर्मचारियों को दें।

मरे हुए चूहों से सावधान रहें
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मरे हुए चूहे

ऐसे मरे हुए चूहों से सावधान रहें। इनके ऊपर प्लेग के बैक्टीरिया समेत जूंए हो सकते हैं। जो भी इन चूहों को छूएगा या हटाने की कोशिश करेगा उसे ये जूंए काट सकते हैं। सबसे अच्छा तरीका है कि इनपर मिट्टी का तेल डालकर इन्हें जला दिया जाए। अगर आप इन चूहों को प्रयोगशाला में जांच के लिए ले जाना चाहते हों तो पहले इन पर मिट्टी का तेल डाल दें। फिर इन्हें लकड़ी से उठाएं और प्लास्टिक के बैग में डाल दें।

चूहों के मरने की खबर या प्लेग की घटना की सूचना मिलने पर कई उपाय तुरंत करने ज़रूरी होते हैं। चूहों पर नियंत्रण उनमें से एक है। दूसरा है जूंओं से दूर रहना। बिस्तर को 18 इंच ऊँचा कर लेना चाहिए क्योंकि जूंए इतनी ऊपर छलांग नहीं मार सकते। प्लेग के टीके से अस्थाई और अपर्याप्त सुरक्षा ही मिल पाती है।

स्वास्थ्य केन्द्र को सूचित करें ऐसे क्षेत्र में जहॉं प्लेग का खतरा हो किसी भी व्यक्ति को गिल्टियों के साथ बुखार होना एक गंभीर स्थिति है। इसकी सूचना तुरंत स्वास्थ्य केन्द्र तक पहुँचाई जानी चाहिए। पर फालतू में डर नहीं फैलाना चाहिए। चूहे के मरने की सूचना भी तुरंत दें। अगर हम सही तरह से व सही समय पर कार्यवाही करें तो प्लेग पर नियंत्रण किया जा सकता है। 1994 में भारत में जन स्वास्थ्य की कोशिशों से तुरंत इस पर काबू पा लिया गया था।

 

डॉ. शाम अष्टेकर २१, चेरी हिल सोसायटी, पाईपलाईन रोड, आनंदवल्ली, गंगापूर रोड, नाशिक ४२२ ०१३. महाराष्ट्र, भारत

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