अनीमिया याने खून की कमी। यह बचपन की एक आम बीमारी है पर यह बहुत कम ही पहचानी जाती है। यह बहुत आम है क्योंकि बचपन में मिलने वाले आहार और मॉं के दूध में लोहे की कमी होती है। अनीमिया के अन्य कारण होते हैं पेचिश, अंकुशकृमि, मलेरिया या तपेदिक या किसी कारण बहुत अधिक खून बह जाना। शरीर के अंदर लोहे की कुछ मात्रा संचित रहती है। इसलिए छ: महीने से कम उम्र में अनीमिया नहीं उभरता। छ: महीेनों की उम्र तक यह मात्रा खतम हो जाती है। अनीमिया से ग्रस्त मॉं के बच्चे के शरीर में लोहे की मात्रा कम रहती है। उसे कम उम्र में ही अनीमिया हो जाता है। कोई कोई अनीमिया अनुवांशिक गड़बड़ियों के कारण भी होता है।
छोटे और बड़े बच्चों में अनीमिया में भूख न लगने, पीलेपन (चेहरे, नाखूनों और आँखों में), आलस और चिड़चिड़ापन जैसे लक्षण दिखाई देते हैं। अनीमिया बहुत ज़्यादा हो जाता है तब इससे चेहरा, पैरों हाथों, लिवर और तिल्ली में सूजन हो जाती है। थैलासीमिया और दरॉंती कोशिका अनीमिया में भी लिवर और तिल्ली में सूजन हो जाती है।
उचित आहार से ही मॉं और बच्चे का अनीमिया से बचाव हो सकता है। स्तनपान करा रही मॉंओं को लोहे – फोलिक ऐसिड की गोलियॉं लेनी चाहिए। बच्चों के लिए मौखिक आयरन का घोल मिलता है। पॉंच साल की उम्र तक बच्चे को साल में करीब १०० दिन आयरन का घोल देना जरुरी है।
पेचिश या कृमि होने पर बच्चे को अनीमिया हो सकता है। शौचालय के इस्तेमाल अहम है। भोजन से पहले और शौच के बाद ठीक से हाथ धोना काफी महत्वपूर्ण हैं। नाखून काटते रहने से नाखूनों में धूल नहीं भरती। इससे पाचन तंत्र संक्रमण से हम बच सकते है। गीली मिट्टी में अंकुश कृमि बहुत होते हैं। इसलिए खेतीहरो में यह संक्रमण ज्यादा है। अंकुश कृमि की लार्वा पैरों की त्वचा से ही शरीर के अंदर घुसते हैं। इस परिस्थिति में जूते पहनना ही एकमात्र बचाव है। अंकुश कृमि आँतोमें खून चूसकर अनीमिया का कारण बनते हैं।
इस मापतोल के अलावा भी कुपोषण के कुछ लक्षण होते है। उदा. हिमोग्लोबीन या रक्तद्रव्य का प्रमाण १२ ग्रॅम से अधिक हो। लगभग ५०% बालकों में खून की कमी होती है।
थैलासीमिया और हसुआ रोग अनीमिया से लाल रक्त कोशिकाएं बर्बाद हो जाती हैं। ये बीमारियॉं कुछ एक जनजातियों में होती हैं। ये बीमारियॉं दूसरे अनीमिया की तरह लोहे की कमी के कारण नहीं होतीं। इन बीमारियों में खून की कोशिकाओं का जल्दी विनाश होता है क्योंकि इनमें गड़बड़ी आ जाती है। ये आनुवंशिक बीमारियॉं होती हैं और इनका कोई स्थाई इलाज नहीं होता। हसुआ रोग में कणिकाओं को टूटने से रोकने के लिए अभी कुछ दवाएँ उपलब्ध है। बार बार पुराना खून निकाल कर खून चढ़ाना पड़ता है। पर भारत जैसे देश और गॉंवों में यह बहुत आसान नहीं होता।