फैक्टरियॉं बहुत तरह की होती हैं इसलिए स्वास्थ्य के खतरे भी कई तरह के होते हैं। नीचे कुछ ऐसे उदाहरण दिए गए हैं जो काफी आम हैं और जिनपर काफी अध्ययन हो चुका है।
परमाणु संयंत्रों में काम करने वाले मजदूरों के लिए यह काफी बड़ा खतरा होता है कि कोशिकाओं में बदलाव के कारण उन्हें कुछ तरह के कैंसर हो सकते हैं। बाकी जनसंख्या के मुकाबले इन मजदूरों में कैंसर ज़्यादा होता है। एक्स रे मशीन चलाने वाले लोगों को भी बचाव के उपाय न अपनाने पर इसी तरह का खतरा होता है। इसलिए वे एक खासतरह का कोट पहनते हैं जिससे एक्स रे पास न हो पातीं। इसमें सीसा होता है। परन्तु जिन रोगियों का एक्स रे होता है उन्हें खास फर्क नहीं पड़ता क्योंकि एक तो एक्स रे कभी कभार ही किया जाता है और दूसरा एक्स रे की मात्रा बहुत कम होती है।
रासायनिक उद्योग उनमें काम कर रहे मजदूरों और वातावरण दोनों के लिए ही स्वास्थ्य के खतरों का एक बड़ा ज़रिया होते हैं। अगर उपयुक्त और कड़े कदम उठाएं जाएं तो यह स्थिति बदल सकती है। १९८४ का भोपाल कांड औद्योगिक दुर्घटनाओं के इतिहास में एक बेहद भयानक दुर्घटना थी। वैसे भी पूरे साल ही अलग अलग रासायनिक उद्योगों में बहुत सी दुर्घटनाएं होती रहती हैं। दुर्घटनाओं के अलावा बहुत से मामलों में लंबे समय तक रसायनों से संपर्क से धीरे धीरे चिरकारी स्वास्थ्य समस्याएं होती रहती हैं। विलायक और पेंट की फैक्टरियों में काम कर रहे मजदूरों को कैंसर होना इसका एक उदाहरण है। फॉसफोरस के बहुत अधिक संपर्क में आने से (खाद की फैक्टरी में काम करने से) जबड़ों की बीमारियॉं हो जाती हैं।
चक्कियों में फेफडों को क्षति पहुँच सकती है |
कई तरह के उद्योगों जैसे कॉटन की मिलों, धातु की घिसाई वाली फैक्टरियों, ऐस्बेसटस की फैक्टरियों, खानों और चावल की मिलों में बहुत तरह की धूल और रेशे हवा में उड़ते रहते हैं। यह धूल और रेशे फेफड़ों में घुस कर इकट्ठे हो जाते हैं और उनसे शोथ हो जाता है। इससे चिरकारी सूखी खॉंसी होती है और फेफड़ों की क्षमता में कमी आ जाती है। इस स्थिति को न्यूमोकोनिओसिस कहते हैं। अगर धूल आदि से बचाव न हो तो बीमारी धीरे धीरे बढ़ती जाती है। किसी किसी तरह की धूल से अधिक नुकसान होता है और किसी से कम। जैसे कि ऐस्बेसटस की धूल से फेफड़ों का कैंसर हो जाता है। यह फैक्टरियों आदि में ऐस्बेसटस की शीट से काम करने वाले लोगों को होता है।
(इसी कारण से अगर किसी के घर की छत ऐस्बेसटस की हो तो उसके लिए यह ज़रूरी होता है कि वो उसे पेंट करके रखे जिससे कि उसके रेशे हवा में न उड़ें)। सभी तरह की न्यूमोकोनिओसिस तपेदिक जैसी होती है। परन्तु एक्स रे से इसका निदान हो सकता है। इस समूह की बीमारियों के बारे में फैक्टरी इन्सपैक्टर को बताया जाना चाहिए। इसमें भी सिलिकोसिस और ऍस्बेस्टॉसीस की समस्याएँ महत्त्वपूर्ण है। सिलिकोसिस खदानों में काम करने वाले और काँच बनाने के फैक्टरी में कर्मचारियों में सिलिका की धूल फेफडों में जमने के कारण होती है। इससे फेफडों की क्षमता घटकर सॉंस लेने में मुश्किल होती है। धीरे धीरे बीमारी बढती जाती है। सुखी खॉंसी, बुखार आदि के कारण लगता है जैसे टी.बी. का मामला है। एक्स रे जॉंच में बीमारी का सही पता चलता है। लेकिन इसका कोई इलाज नही। जिनमें फेफडों में जादा सिलिका धूल गयी है उनको १-२ सला में मौत का सामना करना पडता है। जिनके फेफडों में कम नुकसान हो उनको जीवन बिताना मुश्किल होता है।
ऍस्बेस्टॉस का मामला और भी कठीन है। ऍस्बेस्टॉस छत घर के और फैक्टरीयों और इमारतों में इस्तेमाल लगा होता है। इसके सूक्ष्म धागे हवा में उडते है। यह धागे फेफडों में घुसने के बाद वहॉं कॅन्सर पैदा होता है। कई देशों में इसिलिये ऍस्बेस्टॉस पर पाबंदी है। लेकिन भारत में इसपर अभी तक रोक नही। ऍस्बेस्टॉस कारखानो में फेफडोका कॅन्सर का धोका सब से ज्यादा है। मॉंग है की इसपर रोक लगनी चाहिये।
आवाज़ डेसीबल में नापी जाती है। बहुत से उद्योगों का ध्वनि का स्तर बहुत ही ज़्यादा होता है। इससे लंबे समय में सुनने की क्षमता पर असर पड़ता है। इसके अलावा इससे बेचैनी, चिड़चिड़ापन और थकान भी होती है। ऐसे उद्योगों में कान में पहनने वाले मफलर और नियमित रूप से सुनने की क्षमता की जांच करवाना ज़रूरी होना चाहिए। दुर्भाग्य से वाहनों से भी ध्वनि की समस्या बढ़ती जा रही है। आवाज प्रदूषण डेसीबल में नापा जाता है। ८५ डेसिबल से जादा तीव्र ध्वनी नुकसानदेह है। अलग अलग स्त्रोत से कम जादा डेसिबल की ध्वनी पैदा होती है। प्रस्तुत चित्र में यह ज्यादा प्रतीत होगा।