गुर्दे की चिरकारी बीमारी

चिरकारी गुर्दों का शोथ लम्बे समय महीनो और वर्षों तक चलने वाला शोथ है।

लक्षण

इसके प्रमुख लक्षण हैं पेशाब की मात्रा की कमी और पेशाब की जॉंच में प्रोटीन निकलना। खून के संयोजन से बड़े निश्चित फर्क आ जाते हैं और इसका निदान केवल खून की जॉंच से ही होता है। उच्च रक्तचाप, शरीर पर सूजन, पेशाब की मात्रा में कमी इसके महत्वपूर्ण लक्षण हैं। चिरकारी गुर्दा शोथ का निदान और इलाज विशेषज्ञ ही कर सकते है। इस बीमारी को जल्दी पहचान कर रोगी को डॉक्टर के पास भेजना जरुरी है।

बीमारी का इलाज

इस बीमारी में ठीक से शरीर में द्रव और लवणों का सन्तुलन बनाए रखना ज़रूरी होता है। नमक लेने से रोकना इलाज का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। अक्सर रोगी को अपोहन (डायलसिस) की भी ज़रूरत होती है।

जिस व्यक्ति के गुर्दे फेल हो गए हो उसे गुर्दे के प्रत्यारोपण की ज़रूरत होती है। ऐसे प्रत्यारोपण के लिए दोनो का प्रतिरक्षा तंत्र मेल रखना चाहिए। गुर्दो का दान आजकल एक काला धन्धा बन गया है। अब कानूनन सिर्फ रिश्तेदार ही गुर्दो का दान कर सकेंगे। आयुर्वेद का ऐसा दावा है कि इससे चिरकारी गुर्दे की तकलीफ और फेल होने का इलाज किया गया है। पर इस दावे के कोई व्यवस्थित जॉंच नहीं हुई है।

डायलिसिस (खून की धुलाई या छानना)

डायलिसिस का मतलब है, गुर्दों का काम कृत्रिम पद्धती से करना। इससे खून का युरिया आदि पानी से धो कर निकाला जाता है। इसके लिए अलग अलग तरीके उपलब्ध है।

पेरीटोनिअल (पेट का डायलिसिस)

पेट में आंतों पर एक मुलायम झिल्ली होती है। पेट के डायलिसिस में इस झिल्ली के थैली में डायलिसिस का घोल २०-३० मिनिट तक छोडा जाता है। खून में घुले कुछ पदार्थ विसरण तंत्र के अनुसार इसमें आ जाते है। अब ये घोल निकालकर फेका जाता है। इसी प्रक्रिया को और कुछ बार किया जाता है, ता कि युरिया पूरी तरह से निकल जाए। किसी भी छोटे अस्पताल में यह तकनिक कर सकते है। इसमें कुछ जोखिम जरुर है लेकिन सही प्रशिक्षण से यह तरीका बिलकुल सुरक्षित हो सकता है। आजकल नये तरीकें उपलब्ध होने से ये तरीका कुछ पुराना हो गया है। इसलिये इसका प्रयोग कम होता है।

पेट का निरंतर डायलिसिस

यह तकनिक अस्पताल से दूर रहनेवाले मरीजों को ज्यादा उपयुक्त है। इसके लिये एक टॅफलॉन की नलिका सदा के लिए पेट के पेरिटोनियल झिल्ली के थैली में बिठाई जाती है। इसमें २ लिटर घोल छोड के ६ घंटों बाद वह निकाला जाता है। २४ घंटों में ऐसा ४ बार किया जाता है। इस प्रक्रिया का हर दिन प्रयोग होता है। इस तकनिक का कारण मरीज अपने दैनिक काम सामान्य रूप से कर सकता है। इस तकनिक में कभी कभी संक्रमण हो सकता है। यह एक जोखिम है। इस चिकित्सा का मासिक खर्चा १५-२५ हजार रुपयोंतक होता है।

खून का डायलिसिस

इसमें खून शरीर के बाहर ला कर डायलिसिस के मशीन में घुमाया जाता है। इस मशीन में डायलिसिस का घोल घुमाया जाता है। खून और ये घोल अलग अलग घूमते है और उसमें एक पतली झिल्ली होती है। खून से युरिया जैसे कुछ पदार्थ विसरण तत्व से घोल में उतर आते है। आजकल कई अस्पतालों में आधुनिक कम्प्युटर चलित डायलिसिस मशीन लगाएँ होते है। हर एक मरीज के लिए उसमें सेटींग किया जाता है। डायलिसिस मशीन असल में एक कृत्रिम गुर्दा होता है। इसमें अब कई सुधार आये है। फिर भी कुछ धोखे और बुरे असर हो सकते है। इसका प्रतिमास खर्चा भी काफी होता है। इसलिए जिन्हे संभव है की वे गुर्दे का प्रतिरोपण करनेका निर्णय ले सकते है।

गुर्दे का प्रतिरोपण

दोनो गुर्दो की बीमारी से ग्रस्त मरीज का एक गुर्दा निकालकर दूसरे व्यक्ती का गुर्दा यहॉं बिठाया जाता है। इसका कुल खर्चा लगभग ५ लाख रुपयों तक होता है। इसके लिए उचित दाता भी चाहिए जिसका गुर्दा इस मरीज को चल सके। हमारे देश में कुछ बरसों पहिले गुर्दे की अवैध व्यापार करनेवाले डॉक्टर और जाल पकडे गये है। अब इसके लिए एक कानून भी बन गया है।

मूत्रपिंड दाता की पूरी जॉंच की जाती है। यह व्यक्ती बिलकुल स्वस्थ चाहिए। हमारे देश में अभी तक यह तरीका पुरा अपनाया नहीं गया जिससे हम मृत-मस्तिष्क का गुर्दा इस्तेमाल करे। किसी दुर्घटना में या अन्य बीमारी में जिनका मस्तिष्क निष्क्रिय हुआ है ऐसे मरीजों का गुर्दा निकालकर प्रतिरोपण कर सकते है। इसके लिए एक सही कानूनी प्रक्रिया पूरी होना जरुर है। निकाला हुआ गुर्दा स्वस्थ चाहिए और वह सही ठंडत में रखा जाता है।

यह गुर्दा जल्दी से जल्दी गुर्दे के बिमारीग्रस्त व्यक्ती में प्रतिरोपण किया जाता है। इसके लिए इस मरीज को प्रतिरक्षा शास्त्र के अनुसार तैयार करना पडता है जिससे नया गुर्दा स्वीकार हो। गुर्दे का दाता और लेनेवाला दोनो के रुधिरवर्ग याने ब्लडग्रुप एक समान होना जरुरी है। देनेवाले मरीज में कॅन्सर, एड्स आदि बिमारियॉं नही है यह निश्चित करना भी जरुरी है। इसके बाद ही प्रतिरोपण का ऑपरेशन किया जाता है।

इतना सारा होने के बाद भी लगाया हुआ गुर्दा कभी कभी शरीर अस्वीकार करता है। कुछ दिनों कें बाद यह गुर्दा बेकार हो जाता है। इस ऑपरेशन के बाद कुछ दवाइयॉं एक बरस तक लेनी पडती है जिसके कुछ दुष्परिणाम भी होते है। फिर भी गुर्दा प्रतिरोपण का ऑपरेशन एक जरुरी ऑपरेशन बन गया है। इसका तकनिक भी अब काफी प्रगत हो चुका है। इसलिए लगभग ८०-९०% गुर्दा प्रतिरोपण ऑपरेशन कामयाब होते है। डायलिसिस की तुलना में इसमें जादा राहत और जीने का आनंद होता है।

 

डॉ. शाम अष्टेकर २१, चेरी हिल सोसायटी, पाईपलाईन रोड, आनंदवल्ली, गंगापूर रोड, नाशिक ४२२ ०१३. महाराष्ट्र, भारत

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