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लेथीरस लकवा

यह सालों साल खेसरी (लाखी) दाल खाते रहने से होने वाला लकवा है। यह दाल कई देशों में मिलती है। भारत में यह मध्यवर्ती क्षेत्रों (मध्यप्रदेश) में मिलती और खाई जाती है। यह दाल हर मौसम में टिकी रहने वाली फसलों में से है। यह उन क्षेत्रों में भी आसानी से उग जाती है जहाँ बरसात कम होती है। और यह काफी बड़े स्तर पर इस्तेमाल होती है। इस दाल से लकवे का सीधा सम्बन्ध है इसलिए इसे प्रतिबन्धित कियेजाने की सोची गई थीं। पर यह प्रतिबन्ध हटा दिया गया क्योंकि लाखी लकवे से बचाव के लिए आसान तरीके उपलब्ध हैं।

दाल में एक घुलनशील अमीनो एसिड बीओएए होता है। सालों साल इस दाल का सेवन करते रहने से यह अमीनो एसिड तंत्रिकाओं पर असर डालता है। लकवा होने की सम्भावना केवल तभी होती है अगर यह दाल हर बार के खाने की कुल कैलरीज़ का 25 प्रतिशत हो। अगर इस दाल को उबले गर्म पानी में घण्टे भर के लिए भिगो दिया जाए तो यह रोग विष दाल में से निकल जाता है। इसके लिए दाल के आयतन से चार गुना अधिक पानी लेना चाहिए। रोग विष पानी में घुल जाता है। इसे फिर धोकर निकाला जा सकता है।

लक्षण

रोग विष बाधित व्यक्ति में से धीरे-धीरे पैरों के निचले भाग को लकवा मार जाता है। यह आदमियों में ज्यादा आम होता है। लक्षण पहली बार 20 से 35 साल में दिखाई देते हैं। पूरी तरह से लकवा होने में छ: महीने से एक साल तक लगते हैं। और बीमारी पर रोक लगाने के लिए दाल खाना बन्द कर देना या इसे ठीक से गर्म पानी में भिगोकर इस्तेमाल करना ही काफी होता है।

श्व्पैरों में दर्दनाक ऐंठन होती है। ऐसा खासकर रात को होता है। और यह एक तरह से पहली चेतावनी है। यह ऐंठन 10 से 15 मिनट तक रहती है। श्व्कड़ापन होना भी एक आम लक्षण है। घुटनों और टखनों के जोड़ों में दर्द भी इसमें एक आम समसया होती है।

  • कभी-कभी पीठ में भी दर्द होता है।
  • बीमारी की चार अवस्थाएँ होती हैं।
  • जिसमें चलते समय छड़ी की ज़रूरत नहीं होती (केवल कड़ापन होता है)|
  • एक छड़ी की ज़रूरत वाली अवस्था
  • दो छड़ी की ज़रूरत वाली अवस्था और
  • आखिर में रेंगने वाली अवस्था।
  • एक बार लकवा हो जाने पर फिर यह ठीक नहीं हो सकता।

बचाव

दाल पर प्रतिबन्ध लगाया व्यवहारिक नहीं है। अगर उचित ध्यान रखा जाए तो इसकी ज़रूरत भी नहीं है। गर्म पानी में भिगोकर धोना काफी है। पर कई कारणों से यह आसान तरीका भी ज्यादा इस्तेमाल नहीं होता है। और बहुत से लोग इस बीमारी के शिकार होते हैं।

मेरुदण्ड की बीमारियाँ

मेरुदण्ड को कुछ और बीमारियाँ भी प्रभावित करती हैं। दुर्घटना से चोट लगना और केशेरुका डिस्क द्वारा मेरुदण्ड पर दबाव डालना सबसे ज्यादा होने वाली समस्याएँ हैं। बीसीजी के वैक्सीन की बदौलत मेरुदण्ड का तपेदिक अब काफी कम ही देखने को मिलता है।

लक्षण
  • मेरुदण्ड के जिस हिस्से पर असर हुआ हो उसके नीचे का भाग शक्तिहीन और असंवेदनशील हो जाता है।
  • असरग्रस्त भाग में झुरझुरी और सुन्नपन हो जाता है।
  • मेरुदण्ड में चोट लगने से ब्लैडर, मूत्राशय और ऑंतों का चलन तथा और यौनिक कार्यों में नियंत्रण खत्म हो सकता है।
  • मेरुदण्ड में उस स्थान पर दबाने से दर्द (टैंडरनैस) हो सकता है।
पैर सीधा करके उठाने का परीक्षण (टैस्ट)

straight-leg-testअगर पीठ में दर्द हो रहा हो तो यह पता करने के लिए कि कहीं कशेरुका डिस्क का
जगह से हटना तो नहीं है यह एक आसान टैस्ट है। व्यक्ति को पीठ के बल लिटा दें। फिर एक-एक करके टाँग सीधी करके उठाने को कहें। अगर इससे झुरझुरी हो या फिर जाघों या पैर के पीछे की तरफ दर्द का एहसास हो तो इसका अर्थ है कि डिस्क मेरुदण्ड पर दबाव डाल रही है। अगर ऐसा है तो बीमार को डॉक्टर को दिखाएँ।

इलाज

बीमार को किसी विशेषज्ञ की देखरेख में भेजें। मेरुदण्ड में चोट लगे होने पर व्यक्ति को उठाते वक्त बहुत ध्यान रखें। ऐसे जने को एक जगह से दूसरी जगह से जाने के लिए उसे पेट के बल लिटाकर स्ट्रेचर से बाँध देना चाहिए। ऐसा करने से मेरुदण्ड को दबने से बचाया जा सकता है।

डिस्क के जगह से हटने पर आराम और प्रतिशोथ दवाओं (जैसे आईबूप्रोफेन) से कुछ मामलों में मदद मिल सकती है। अन्य मामलों में कर्षण या ऑपरेशन की ज़रूरत होती है। कोटी कशेरुका बैल्ट द्वारा प्रभावित जगह का हिलना-डुलना बन्द करने में मदद मिलती है।

एक्युपंक्चर और एक्युप्रेशर इस पर अच्छा इलाज हो सकता है।

 

डॉ. शाम अष्टेकर २१, चेरी हिल सोसायटी, पाईपलाईन रोड, आनंदवल्ली, गंगापूर रोड, नाशिक ४२२ ०१३. महाराष्ट्र, भारत

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