हालहीमे (2014) पल्स पोलिओ के कुछ बरसों से चले कार्यक्रम के चलते अब भारत में पोलिओ की बीमारी बिलकुल नामशेष हो गई है| यह सराहनीय बात है और एक वैज्ञानिक जीत है| लेकिन कई विशेषज्ञ इस तथ्य को मानते नही क्यों की पोलिओनुमा बिमारियों के केस राज्यों में होते रहते है| इस पोलिओनुमा बीमारी का विशाणू असल में बदला हुआ मूल विषाणू ही है और पोलिओ टीके से ही निकला हुआ है| जब तक भारत में सार्वजनिक स्वच्छता खराब हालत में है तब तक इन विषाणूओं का फैलाव होता रहेगा| इसलिये केवल पल्स पोलिओ टीकाकरण से सही पोलिओ मुक्ती संभव नही ऐसा एक मानना है| वैसे ही ओरल पोलिओ के बजाय पोलिओ टीके का इंजेक्शन ज्यादा सुरक्षित माना जाता है क्यों की इसमें मरे हुए विषाणू इस्तेमाल होते है| ओरल पोलिओ में अधमरे विषाणू होते है इसलिये आगे चलकर उनका नया रूप लेना संभव होता है| असली पोलिओ मुक्ती के लिये इंजेक्शन वाले टीके और शत प्रतिशत पाखानों का इस्तेमाल महत्त्वपूर्ण माना जाता है|
पोलियो की बीमारी पोलियो वायरस द्वारा तंत्रिकाओं की जड़ों पर असर डालने से होती है। यह बीमारी बहुत से विकासशील देशों में होती है। क्योंकि इन देशों में पर्याप्त टीकाकरण और स्वच्छता का अभाव होता है। यह बीमारी मुख्यत: बच्चों को होती है। ज्यादातर बच्चों में संक्रमण और प्रतिरक्षा (या बीमारी) पाँच साल की उम्र तक की हो जाती है। पोलियो से प्रभावित होने वाले बच्चों में से करीब 80 प्रतिशत एक से दो साल की उम्र के होते हैं।
पोलियो का वायरस मनुष्य के शरीर में आहार नली से दूषित पानी पीने, दूषित खाना खाने या गन्दे हाथों से घुसता है। जिन बच्चों को यह बीमारी हो जाती है उनके पाखाने में यह वायरस बहुत बड़ी तादाद में होता है। वायरस के संक्रमण से हल्का बुखार, दस्त और कभी-कभी उल्टियाँ हो जाती हैं। यह किसी भी अन्य वायरस से होने वाले दस्त जैसा ही होता है। ज्यादातर बच्चों में यह दस्त और कुछ नुकसान हुए बिना ठीक हो जाता है।
परन्तु सभी बच्चे इतने भाग्यशाली नहीं होते। कुछ में दौरा पड़ सकता है और उसके बाद किसी एक हाथ या पैर (आम तौर पर पैर) को लकवा मार सकता है। अकसर स्थानीय डॉक्टर दस्त होने पर अन्तर पेशीय इन्जैक्शन दे देते हैं। यह इन्जैक्शन आगे होने वाली जटिलताओं का कारण बन जाता है। इसलिए यह तर्कहीन चलन पोलियो वायरस के दस्त से ग्रसित बच्चों के लिए बहुत अधिक नुकसानदेह साबित होता है। इन्जैक्शन, या किसी पेशी के किसी हिस्से में चोट से इधर-उधर घूम रहे वायरस को स्थानीय तंत्रिकाओं के तन्तु में आकर ठहर जाने में मदद करते हैं। यहाँ से ये मेरुदण्ड के उस भाग में आकर ठहर जाते हैं, जहाँ ये तंत्रिका तन्तु मेरुदण्ड से जुड़ा होता है। तंत्रिका की जड़ खराब हो जाती है, और इससे जुड़ा पेशी समूह शक्तिहीन हो जाता है।
जिस हफ्ते में दस्त होता है, उससे अगले हफ्ते में लकवे का हमला होता है। सबसे आम शिकायत है दौरा पड़ना जिसके बाद लकवा होता है। एक विशिष्ट लक्षण ये है कि बच्चा सहारे के बिना खड़ा नहीं हो पाता। जाँच से पता चलता है कि प्रभावित अंग में संवेदना तो होती है पर उसमें न तो कोई हरकत होती है और न कोई प्रतिवर्त क्रिया होती है। (बचपन में होने वाला लकवा एक और किस्म का भी होता है, जिसमें संवेदना नहीं होती है। यह बीमारी ठीक हो जाने वाली होती है। और इसमें पूरी तरह से ठीक हो जाने की सम्भावना बहुत अधिक होती है।)
एक बार लकवा मार जाने के बाद हाथ या पैर एक या दो हफ्तों तक शक्तिहीन रहता है और उसके बाद ही धीरे-धीरे आंशिक रूप से ठीक हो पाता है। जब तक बीमारी सक्रिय रहती है तब तक दर्द भी रहता है। जिस पेशी को लकवा मार गया होता है वो छोटी हो जाती है और अपना काम करना बन्द कर देती है। पैर छोटा, सिकुड़ा और मुरझाया हुआ सा दिखने लगता है।
लकवा हो जाने के बाद पोलियो का कोई इलाज सम्भव नहीं है। एक बार लकवा हो जाए तो विशेषज्ञ की राय ज़रूरी होती है। सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य होता है खराबी को कम किया जा सकना और निरोगण में मदद करना। जब पैर में दर्द हो रहा हो उस समय उसकी मालिश न करें। असरग्रस्त भाग को पूरा आराम दें। पेशियों को सिकुड़ने से रोकने के लिए एक खपच्ची का इस्तेमाल करें।
जब पोलियो से ग्रसित अंग में विकलांगता हो जाती है तो फिर उपयुक्त तरीके से पुनर्वास ज़रूरी होता है। पैर के छोटे हो जाने के लिए फिर से चल पाने के लिए कैलिपर्स की ज़रूरत होती है। अगर पैर बहुत अधिक शक्तिहीन हो गया हो तो बैसाखी की भी ज़रूरत हो सकती है।
ओरल पोलियो वैक्सीन |
पोलियो से बचाव के लिए मुँह से दी जाने वाली पोलियो की वैक्सीन यानि ओरल पोलियो वैक्सीन (ओपीवी) काफी उपयोगी होती है। इस वैक्सीन में पोलियो के आधे मरे वायरस होते हैं। जिस बच्चे को ये दवा दी जाती है उसकी आहार नली में ये वायरस अपनी संख्या बढ़ाते हैं और इससे उसके शरीर में पोलियो वायरस के लिए प्रतिपिण्ड पैदा हो जाते हैं। यह वायरस क्योंकि पाखाने के साथ बाहर भी आ जाता है अत: इस तरह से यह और बच्चों तक पहुँच जाता है। अगर 85 प्रतिशत बच्चों को यह वैक्सीन दे दिया जाए तो इससे बाकि के पन्द्रह प्रतिशत को अपने आप सुरक्षा मिल जाती है।
परन्तु इस वैक्सीन के प्रभावशाली होने के लिए ज़रूरी है कि इसे सारा समय फ्रिज में 10 डिग्री सैंटीग्रेड पर रखा जाए। सारा समय यानी जहाँ ये बनी हो वहाँ से लेकर बच्चे के पास पहुँचने तक। पल्स पोलियो अभियान में सभी बच्चों को एक साथ शामिल करना ज़रूरी होता है। यह तरीका सामान्य टीकाकरण की तरीके से ज्यादा प्रभावशाली होता है और कई देशों में इस तरीके से पोलियो से पूरी तरह से मुक्ति भी मिल चुकी है। यह आसान भी होता है और सस्ता भी। इससे पोलियो का खतरा मिट सकता है। इन्जैक्शन के माध्यम से दी जाने वाली वैक्सीन (साल्क) भी आज उपलब्ध है। इस वैक्सीन से भी 100 प्रतिशत प्रतिरक्षा मिल जाती है। इसके असरहीन होने की कोई सम्भावना नहीं होती है।