खोपड़ी के ऊपरी भाग को ढंकने के लिए हड्डियों की चार प्लेटें चार ओर से विकसित
होती हैं। पर खोपड़ी के जोड़ों में बची खाली जगहें भरी जानी होती हैं। इन्हें करोटी अंतराल (फॉंटेनल) कहते हैं। जैसे जैसे बच्चा बड़ा होता है जोड़ों के बीच की ये खाली जगहें भर जाती हैं।
जन्म के समय खोपड़ी में चार ऐसी जगहें होती हैं। इन्हें इनके स्थान के अनुसार नाम दिए जाते हैं। सामने के जोड़ को अग्र करोटी अंतराल कहते हैं। यही सबसे प्रमुख सामने का जोड़ होता है। और यह ही सबसे आखिर में भरता है। पीछे और दोनों तरफ के जोड़ जन्म के तुरंत बाद ही भर जाते हैं और इनका चिकित्सीय रूप से खास महत्व नहीं होता।
करोटी अंतराल के दो मुख्य काम होते हैं। पहला प्रसव के समय खोपड़ी की हड्डियों की प्लेटों के स्वतंत्रता से इधर उधर हिल पाने से सिर प्रसव नली में ज़रूरत अनुसार पा लेता है । इस प्रक्रिया में हड्डियों की प्लेटें लगभग एक दूसरे के ऊपर ही आ जाती हैं। इससे खोपड़ी छोटी होकर आसानी से प्रसव नली में से निकल सकती है।
दूसरा काम है पहले दो सालों में मस्तिष्क के तेजी से विकास का। बहुत ही किन्हीं किन्हीं मामलों में ये करोटी अंतराल समय से पहले ही भर जाते हैं। इससे मस्तिष्क को बढ़ने के लिए जगह नहीं मिल पाती है। इस बीमारी से मस्तिष्क के विकास पर असर होता है। और इसकी पहचान जल्दी ही कर लेनी चाहिए। और अगर करोटी अंतराल की जगह पर हड्डी सी दिखाई दे तो डॉक्टर को दिखाया जाना चाहिए।
अग्र करोटी अंतराल की जांच करना बहुत महत्वपूर्ण होता है। यह आमतौर पर 18 महीनों में बंद होता है। भारत में अग्र करोटी अंतराल की मालिश करने का जो रिवाज़ है उसकी जांच करने की ज़रूरत है। आयुर्वेद के कुछ विशेषज्ञ ऐसा मानते हैं कि इससे बच्चे को अतिरिक्त पोषण मिलता है। और इससे खून में वसा का स्तर बढ़ता है। इस रिवाज से मॉं को बच्चे के स्वास्थ्य पर रोज़ नज़र रखने का मौका भी मिलता है। जिन बीमारियों से निर्जलीकरण या स्तब्धता की स्थिति बन जाती है उनमें यह अग्र करोटी अंतराल अंदर धंस जाता है। उदाहरण के लिए दस्त लगने पर। जब बच्चा रो रहा होता है उस समय अग्र करोटी अंतराल फूल जाता है। परन्तु मस्तिष्कावरण शोथ (मैनिनजाइटिस) जैसी बीमारियों में उस समय भी अग्र करोटी अंतराल फूल जाता है जब बच्चा रो भी न रहा हो।
अग्र करोटी अंतराल उस समय तनाव ग्रस्त होता है जब बच्चा रो रहा हो या लेटा हुआ हो। इसलिए जब वो चुप हो या बैठा हुआ हो तो इसकी जांच करनी चाहिए। बुखार और दस्त दोनों में अग्र करोटी अंतराल की जांच करना ज़रूरी होता है ताकि यह पक्का किया जा सके कि जान को किसी तरह का खतरा नहीं है। रिकेटस, जलशीर्षता (मस्तिष्क की गुहाओं में द्रव इकट्ठा होना), अवटुवामनता और हड्डियों की और बीमारियों में अग्र करोटी अंतराल के बंद होने में देरी हो जाती है। यह भी बच्चों की देखभाल में एक महत्वपूर्ण संकेत है।
उम्र के पहले छह महीनों में बच्चा केवल स्तनपान से ही स्वस्थ रह सकता है। इस समय में मॉं का दूध ही उसके लिए सबसे अच्छा है क्योंकि यह उसके पाचन तंत्र के लिए सबसे सही होता है। मॉं का दूध हल्का गर्म, विसमित होता है और इसे बच्चा जितनी चाहे मात्रा में ले सकता है। मॉं के दूध से बच्चा का कई एक संक्रमणकारी रोगों से भी बचाव होता है। स्तनपान से बच्चे और मॉं के बीच एक नजदीकी बंधन भी बनता है। जिससे बच्चे को आगे की उम्र में भावनात्मक सहारा भी मिलता है।
आमतौर पर बच्चा जब रोता है तो यह भूख के कारण होता है। ऐसे में मॉं को उसे दूध पिलाना चाहिए। बच्चा जब भी दूध मांगे उसे तभी दूध पिलाना चाहिए। बच्चे के रोने के अलावा उसकी भूख का पता किसी भी और तरीके से नहीं लग सकता।
पहले 2 – 3 दिनों में निकलने वाला मॉं का दूध खीस कहलाता है। इस दूध में खूब सारे प्रतिपिंड होते हैं। इससे बच्चे को अपने पहले दो दिनों में प्रतिरक्षा मिलती है। बच्चे के जन्म के तुरंत बाद स्तनपान शुरु कर देना चाहिए। इसे दूध पी पाने के लिए अच्छा प्रतिवर्त विकसित हो सकेगा और स्तन ठीक से खाली हो सकेंगे। हर बार बच्चे को पहले स्तनपान करवाया जाना ज़रूरी है।
स्तनपान से मॉं को अपना वजन घटाने में भी मदद मिलती है। इसके अलावा इससे गर्भाशय को वापस अपना आकार वापस प्राप्त करने और अगली बार 6 से 9 महीनों में गर्भावस्था से बचने में भी मदद मिलती है। परन्तु स्तनपान गर्भावस्था से बचने का पूरी तरह से
भरोसेमंद तरीका नहीं है।
अगर मॉं का दूध काफी न हो तो नीचे दिए गए तरीके अपनाएं। सबसे पहले हर बार बच्चा जब रोए तो उसे छातियों से दूध चूसने के लिए पास लाएं। इससे दूध बनने और निकलने के लिए उद्दीपन मिलता है। बच्चे को पोषण देने की इच्छा से दूध बनने में बढ़ोतरी होती है। मॉं का पोषण भी अच्छा होना चाहिए।
दूध का बनना बढ़ाने के लिए कोई भी दवा नहीं होती है। आयुर्वेद में कुछ तरीके बताए गए हैं जिनसे दूध का बनना बढ़ता है (जैसे शतवार)। स्तनपान करवाने वाली मॉं को इतना खाना खाना चाहिए जो कि उसके अपने और बच्चे दोनों के लिए काफी हो। दालें, हरी सब्ज़ियॉं, पपीते जैसे फल, दूध, अंडे, मछली आदि मॉं को दिए जाने चाहिए। साथ में अलग से कैलशियम और आयरन (लोहा) देना भी ज़रूरी होता है।
चूचुक की ठीक देखभाल बहुत ज़रूरी है। अगर चूचुक अंदर की ओर धंसे हुए हों तो उनसे चूसने में दिक्कत होती है। इसके लिए एक आसान तरीका है चूचुक को अंगूठे और उंगली के बीच रख कर घुमाना। आप एक 5 या 10 मिली लीटर की पिचकारी (सिरिंज) का आगे का भाग काट कर उससे चूचुक पर चूषण लगा सकते हैं।
६ महिनों के बाद स्तनपान बच्चे को पर्याप्त नही होता| इसके बाद अन्य पतले, घने आहार शुरु करना जरुरी है| बच्चों के लिए भेड़ या गाय का दूध अच्छा रहता है। बच्चे को पिलाने से पहले दूध को उबाल कर ठंडा कर लें। दो महीनों से छोटे बच्चे के लिए ऊपर की क्रीम की परत हटा लें। दूध को पतला किए बिना न पिलाएं। एक कप दूध में चौथाई कप पानी और एक चाय का चम्मच चीनी मिलाएं। दूध पिलाने के लिए चम्मच का इस्तेमाल करें।
गाय और भैंस के दूध में इंसान के दूध के मुकाबले अधिक लवण और खनिज होते हैं। इसलिए दो महीने से कम के बच्चे को दूध देने से पहले इसे पतला ज़रूर कर लें। ताज़ा दूध उपलब्ध न होने पर डब्बा बंद दूध इस्तेमाल किया जा सकता है। परन्तु दूध में पानी और चीनी ज़रूर मिलाएं। डिब्बा बंद दूध ताज़े दूध के मुकाबले कहीं ज़्यादा मंहंगा होता है।
कई मांएं बच्चों के दूध में चीनी नहीं डालतीं। ऐसी धारणा है कि चीनी से कीड़े हो जाते हैं। यह सही नहीं है। मॉं के दूध में गाय, भैंस या भेड़ के दूध के मुकाबले ज़्यादा चीनी होती है। इसलिए ऊपर के दूध में चीनी ज़रूर डाली जानी चाहिए। अगर ऊपर का दूध पर्याप्त मात्रा में न दिया जाए तो बच्चा कुपोषित रह सकता है।
मॉं को ऊपर का दूध देने का सही तरीका और जानकारी दें। बोतल से दूध देने में स्वच्छता का ध्यान न देने से काफी नुकसान हो सकता है। अगर बोतल से दूध देना बिल्कुल ही ज़रूरी हो तो बोतल को हर बार इस्तेमाल से पहले 15 मिनट तक उबालना ज़रूरी होता है। रबर या पौलीथीन के निपल भी पॉंच मिनट तक ज़रूर उबाले जाने चाहिए। बोतल के अंदर वसा जमा हो जाती है। बोतल को साफ करने के लिए ब्रश और गुनगुने साबुन के पानी का इस्तेमाल करना चाहिए। दूध पिलाने के बाद बोतल में बचे हुए दूध को फैंक देना चाहिए क्योंकि इसमें बच्चे के मुँह से निकले हुए कीटाणु पहुँच चुके होते हैं। जहॉं तक संभव हो बोतल से दूध न पिलाएं।
छटे महीने से बच्चे को मॉं के दूध के अलावा और खुराक की भी ज़रूरत होती है। इस समय में बच्चे को और चीज़ें देनी शुरु कर देनी चाहिए। चावल के पानी से शुरुआत करें। इसके अलावा उबली हुई दाल, पालक या गाजर जैसी सब्ज़ियों की मुलायम लपसी आदि दी जा सकती हैं। स्वाद अच्छा बनाने के लिए नमक या चीनी मिलाई जा सकती है।
छ: महीने का होने पर बच्चे को अर्धठोस खाना जैसे दलिया, चावल, दाल की लपसी, कुचला हुआ केला या आलू, फलों का गूदा, पहले अंडे का पीला भाग और फिर पूरा अंडा, गोश्त का शोरबा, हरी सब्ज़ियों की लपसी, घी और मक्खन देना शुरु कर देना चाहिए।
एक या दो चम्मच फलों का रस या कुचले हुए फल (संतरा, पका केला, आम या अंगूर) आदि भी दिए जाने चाहिए। धीरे धीरे इनकी मात्रा बढ़ा कर आधा कप रोज़ तक की जा सकती है। इससे चीनी के अलावा विटामिन सी भी बच्चे को मिल जाता है। अलग अलग अनाजों से बनी लपसी या दलिया बच्चे काफी आसानी से पचा लेते हैं।
एक बार में केवल एक ही नई चीज़ शुरु करें। जिससे बच्चा इस नई खाने की चीज़ की आदत डाल सके। बच्चे को पेट खराब होने या दस्त आदि से बचाने के लिए सफाई का विशेष ख्याल रखें। बच्चे को खिलाने के लिए थोड़े से कौशल की ज़रूरत होती है क्योंकि वो अपनी जीभ से चम्मच बाहर कर देता है। चम्मच को जीभ के ऊपर थोड़ा गहराई में रखें ताकि बच्चा उसे बाहर न कर सके। अगर यह तरीका अपनाया जाए तो बच्चा खाने की चीज़ भी बाहर नहीं थूक सकता है|
कई परिवारों में बच्चे के एक साल तक का होने तक उसे ऊपर का खाना देना शुरु नहीं किया जाता इससे बच्चा कुपोषित हो सकता है। इससे बच्चे को लंबे समय तक ज़रूरी पोषक तत्व नहीं मिल पाते और दूसरा और बड़ा हो जाने पर बच्चे को नई चीज़ें खिलाना शुरु करना मुश्किल होता है।