महामारी के समय में भी सभी लोग रोगग्रस्त नहीं होते और न भी सभी लोग मरते हैं। हम ऐसा मानते हैं कि कोई भी संक्रमण कमज़ोर लोगों को पकड़ लेता है और मज़बूत लोग इसस बच निकलते हैं। एक व्यक्ति जो किसी एक रोग के फैलने पर उसने बच निकलता है या प्रभावित होता है वो ज़रूरी नहीं है कि किसी दूसरे रोग के फैलने पर उससे भी बच निकले या प्रभावित हो। इसलिए जो लोग चेचक या प्लेग से बच निकले हों वो ज़रूरी नहीं है कि खॉंसी जुकाम, फ्लू, या टॉयफाइड से भी बचा रह सके। यानि एक व्यक्ति जो किसी एक बीमारी से प्रतिरक्षित हो वो ज़रूरी नहीं कि किसी दूसरी बीमारी से भी बचा रह सकेगा।
हम ये भी जानते हैं कि बचपन में खसरा हो जाने के बाद बड़ी उम्र में कभी वापस नहीं आता । ऐसा शरीर की प्रतिरोधकक्षमता के कारण होता है। यह शब्द केवल कीटाणुओं, परजीवियों और विषैले तत्व से होने वाली बीमारियों से जुड़ा है। बाहरी कारकों ( जैसे कीटाणुओं, परजीवियों और विषैले तत्व ) के प्रति कोशकीय और/या रक्षकप्रोटीन के विकास के लिये शरीर की विलक्षणता के गुण को प्रतिरक्षण कहते हैं। अलग-अलग बीमारी करने वाले बाहरी पदार्थ के लिए प्रतिरक्षा अलग होती है।
प्रतिरक्षण एक खास ‘बाहरी’ पदार्थ के खिलाफ अक्सर अतिविशिष्ट होती है। जैसे जुकाम के लिए प्रतिरक्षा, कोढ़ के कीटाणुओं से लड़ने के लिए किसी काम की नहीं होती। और किसी एक प्रकार के जुकाम के लिए प्रतिरक्षा जुकाम के सभी वायरसों पर असर नहीं कर सकती। कुछ बाहरी तत्वों से थोड़े समय की प्रतिरक्षा हो सकती है। (जैसे कि जुकाम के वायरस से) और कुछ ओर से लम्बे समय की प्रतिरक्षा पैदा हो सकती है (जैसे कि खसरे के वायरस से)। शरीर की प्रतिरक्षा की याददाश्त यह तय करती है कि हमें कोई रोग जीवन काल में कितनी बार हो सकता है। यह ये भी तय करती है कि हमें किसी बीमारी के लिए और कब टीका लगाना चाहिए।
प्रतिरक्षण दो प्रकार की होती है। पहला प्रकार शरीरीद्रव्य(देहद्रवी) प्रतिरक्षण ग्लोब्यूलिन प्रोटीन को आरोउपीत खून और लसिका कोशिकाएँ कीटाणुओं और कणों के खिलाफ ग्लोब्यूलिन प्रोटीन पैदा करती हैं। ये प्रतिजन (एन्टीजन) किसी बैक्टीरिया द्वारा स्त्रावित जीवविषैले तत्व या सॉंप के ज़हर का प्रोटीन या फिर किसी कीटाणु की सतह का एक खास बिन्दु हो सकता है।
इस तरह से उत्पादित ग्लोब्यूलिन प्रोटीन को तकनीकि रूप से प्रतिपिण्ड कहते हैं। ये प्रतिपिण्ड रक्त प्रवाह में बहते रहते हैं और यहॉ से निकल कर ऊतक तक पहॅुच जाते है और प्रतिजन वाले स्थनों पर आक्रमण करते है। । । प्रतिजन और प्रतिपिण्ड के जोड़ को प्रतिजन-प्रतिपिण्ड संकुल कहते हैं। यही वो तरीका है जिससे प्रतिपिण्ड प्रतिजनों को खत्म करते हैं। अगर किसी व्यक्ति में पर्याप्त मात्रा में प्रोटीन न हो तो उसके खून में एक स्वस्थ व्यक्ति की तुलना में ग्लोब्यूलिन की भी कमी होगी। इसी कारण से कुपोषित व्यक्ति में संक्रमण्रोग होने की सम्भावना हमेशा ज़्यादा होती है।
दूसरी तरह की प्रतिरक्षण,जो उतक मघ्यस्थ प्रतिरक्षण(सी,एम,आई) व्दारारक्त सफेद कोशिकाओं के माध्यम से काम करती है। इसतरह की प्रतिरक्षा आमतौर पर चिरकारी (क्रोनिक) शोथकारी बीमारियों जैसे तपेदिक, कोढ़ आदि में काम करती है। ये सफेद रक्त कोशिकाएँ खून में उपस्थित किसी खास रोगाणु कण के खिलाफ प्रशिक्षित होती है। ये रोग-जनक कणों को खाकर दुश्मन कोशिकाओं के खिलाफ सिपाहियों का काम करती हैं। सफेद कोशिकाओं और रोगाणु कोशिकाओं के खिलाफ एक अघोषित युद्ध लगातारसा चलता है जिसमें बहुत सारे रसायन बनते हैं। ये रसायनस शोथकारी प्रक्रियाएँ शुरू कर देते हैं जिससे गर्मी पैदा होती है, जहॉं ये प्रक्रिया चल रही हो उस जगह पर द्रव इकट्ठा हो जाता है और छोटी-छोटी खून की नलियों में सूजन हो जाती है।
सक्रिय ओर सुप्त प्रतिरक्षण शरीर द्वारा कीटाणुओं से सामना करते हुए स्वयं विकसित हुई प्रतिरक्षा को सक्रिय (अपनी) प्रतिरक्षा कहते है। इस तरह वैक्सीन से भी सक्रिय प्रतिरक्षा विकसित होती है। इसके विपरीत प्रति सॉंप ज़हर (एंटी स्नेक विनम) एक तैयार प्रोटीन है (सॉंप के ज़हर के खिलाफ यह प्रोटीन घोड़े के खून से बना होता है) जो इस्तेमाल के लिये उपलब्ध है। यह उदासीन प्रतिरक्षा का उदाहरण है । उदासीन (पराई) प्रतिरक्षा याददाश्त में नहीं रह पाती क्योंकि इसके लिए प्रोटीन का निर्माण शरीर ने खुद नहीं किया होता।
जन्म के समय शिशु का प्रतिजन का बहुत कम अनुभव होता है इसलिए वो कीटाणुओं के हमलों से प्रभावित हो सकता है। सौभाग्य से गर्भवति मॉं के शरीर के प्रतिपिण्ड गर्भाशय से ही बच्चे के खून के संचरण में चले जाते हैं। इससे बच्चा कम से कम कुछ संक्रमणों से तो बच जाता है। इसके अलावा पहले दो तीन दिनों में निकलने वाला मॉं का दूध (जिसे खीस कहते हैं) भी बच्चे को आहार तंत्र और फेफड़ों के संक्रमण से बचाता है। मॉं द्वारा बच्चे को दी जा रही ये प्रतिरक्षा अस्थाई होती है। इसे भी सुप्त प्रतिरक्षा कह सकते हैं क्योंकि बच्चा अपने आप इसे विकसित नहीं किया है।
टीकाकरण से प्रतिरोध क्षमता मिलती है| |
प्राकृतिक संक्रमण के अलावा, मनुष्य निर्मित संक्रमण (जिन्हें टीका, वैक्सिनेशन या प्रतिरक्षण कहते हैं) से भी प्रतिरक्षा विकसित होती है। इसके लिए मरे हुए या आधे मरे हुए कीटाणु (या कमजोर किए जा चुके विषैले तत्व ) बहुत थोड़ी सी मात्रा में उपयुक्त रास्ते से (मुँह से या इन्जैक्शन से) दिए जाते हैं। इससे रोग नहीं होता पर प्रतिरक्षा विकसित हो जाती है। सही स्तर से प्रतिरक्षा विकसित करने के लिए अकसर 2 या 3 खुराक देना ज़रूरी होता है। कुछ मामलों में प्रतिरक्षा क्रियाविधि की याददाश्त ताज़ा करने के लिए बूस्टर खुराक देने की भी ज़रूरत होती है।
कुछ दशक पहले जो बीमारियॉं हज़ारों लाखों लोगों की मौत का कारण बनती थीं उनसे लड़ने में वैक्सिनेशन वाकई क्रांतिकारी साबित हुआ है। चेचक के खिलाफ हमारी जीत इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। आरथ्रेलजिआ दो ग्रीक शब्दो से मिलकर बना है आ्ररथ्रो यानी जोड+एलजिआ यानी दर्द जिसका अर्थ जोड़ो में दर्द है। इस शब्द का इस्तेमाल सभी परिस्थिती में नही किया जाता | सिर्फ जोड़ो में दर्द की बिमारी जो सूजन और जलन से संबंधीत न हो, उन परिस्थितियॉ के लिये इस शब्द का प्रयोग करना चाहिये | जोड़ो में दर्द की बिमारीयॉ के साथ सूजन और जलन हो तो संधिशोध या प्रजव्लन (आरथ्राटिस) शब्द का प्रयोग करना चाहिये |
यह जानना भी ज़रूरी है कि प्रतिरक्षा से संक्रमण के खिलाफ पूरी सुरक्षा मिल भी सकती है और नहीं भी। बीसीजी का टीका इसका सबसे स्पष्ट उदाहरण है। बीसीजी के टीके से तपेदिक से पूरी रक्षा नहीं होती। इसस केवल तपेदिक के होने की सम्भावना कम हो पाती है या फिर दोबारा संक्रमण होने पर शरीर की प्रतिक्रिया में बदलाव आ जाता है। बीसीजी का टीका लगने पर जब किसी को तपेदिक हाता है तो वो ‘कम खतरनाक रूप’ का होता है। कोढ़ में भी प्रतिरक्षा के स्तर से ही यह तय होता है कि बीमारी क्या रूप लेगी।
प्रतिरक्षा विकसित होने में समय लगता है। यह अवधि दोनों से लेकर महीनों तक की हो सकती है। इसलिए आप ये अपेक्षा नहीं कर सकते कि जैसे ही टिटेनस ऑक्साइड का इन्जैक्शन किसी व्यक्ति को दिया गया उसी समय उसमें धवुर्वात टिटेनस के लिए प्रतिरक्षा विकसित हो जाएगी। इसके लिए दो खुराक और कुछ महीने लगते हैं। कुछ बीमारियों में प्रतिरक्षा विकसित नहीं होती। सभी संक्रमणों से पर्याप्त प्रतिरक्षा पैदा नहीं हो पाती। मलेरिया, कीड़े, फाईलेरिया रोग, अमीबिआसिस आदि में बिलकुल भी प्रतिरक्षा विकसित नहीं हो पाती। इसलिए ये बीमारियॉं बार बार हो सकती हैं।
कुछ संक्रमण शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को कमज़ोर कर देते हैं। एड्स एक वायरस से होने वाला संक्रमण है जो प्रतिरक्षा प्रणाली को कमज़ोर कर देता है जिससे अन्य कीटाणुओं को शरीर पर हमला करके उसे नुकसान पहुँचाने का मौका मिल जाता है। काला अज़र भी ऐसी ही एक बीमारी है। इसें सफेद रक्त कोशिकाओं पर असर होता है। अनीमिया और कुपोषण से भी शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र कमज़ोर पड़ जाता है।
कई ऐसी बीमारियॉं भी हैं जिनमें शरीर का अपना प्रतिरक्षा तंत्र अपने ही ऊतकों पर हमला करके उन्हें नष्ट करने लगता है। ऐसी बीमारियों को स्वरोगक्षम बीमारियॉं कहते हैं। ये कारक रूमेटिक बीमारियों और कुछ और बीमारियों में उपस्थित होते हैं।